________________
स्तोत्र - स्तुति-वन्दना खण्ड
तेई पद्म-पद्म जिनेसजू मैं पाय निज । आपुन बल बाँधिके विभाव दूर कियो है ।। (७) श्रीसुपार्श्वनाथ जिन-वन्दना
कवित्त
विनसे विभाव जाही छिन मैं असुद्धरूप । ताही छिन सहज स्वरूप तिनि करषे । । मति श्रुत आदि दे सुदाह दुख दूर भयो । हृदै तासु सुद्ध आतमीक जल वरषे ।। केवलि सुदिष्टि आई संपति अटूट पाई । सकल पदारथ समै मैं एक पर। तिनही सुपास जिनेस की बढ़ाई जाके । जगमाँहि भव्य प्राणी हिय हरषे ।। ७ । ।
(८) श्रीचन्द्रप्रभ जिन-वन्दना
।।६।।
कुण्डलिया
देवा देवन के महा चन्द्रप्रभ पद जाहि । वन्दौं भव उर कमलिनी विगसत देखत ताहि । । विगसत देखत ताहि सु तौ सब लोक प्रकासी । केत करै प्रकास चन्द्र महि जोति जरासी ।। विमल चन्द्र मह समद सम स्वदेह वाणी स्वयमेवा ! चन्दा सहित कलंक वे सु निःकलंकित देवा । । ८ । । (९) श्रीपुष्पदन्त जिन वन्दना
कवित्त
माह्यो मन तिन मदन डस्यो पिन भगत अंत तिहिं मिलो न थानि । समोसरण महिं सो प्रभू पगतर पहु रूप हो वरसी आनि । पुनि तिनकी सु नाम महिमा सौं अपगुन भयो महागुन खानि । तेई पुष्पदन्त जिनवर के सेवत चरण-कमल हम जानि ।। ९ ।। (१०) श्रीशीतलनाथ जिन-वन्दना
कवित्त
Jain Education International
.११७
शीतल सरसभाव समतारस करि सुपरम अन्त उर भीनौं । अति शीतल तुषार सम प्रगटत गुण उर करम कमल वन छीनौं । ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org