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________________ देवीदास-विलास शुद्धज्ञान साहजीक सूरज प्रकास्यो हिए। नहिं अणु तिमिर परोक्षताकी पीर है।। सकल पदारथ के परछी प्रत्यक्ष देव। तिनतें जगत्रि के वि. न धीर-वीर है।। जयवन्त टोह ऐसे सम्भव जिनेश्वर जू। सुख-दुख को न जाके करत शरीर है।।३।। (४) श्री अभिनन्दननाथ जिन-वन्दना सवैया तेईसा चार प्रकार महागुणसार करे तिन घातन कर्म निकंदन। धर्ममई उपदेश सुनें तसु शीतल होत हृदौ जिमि चंदन।। इन्द्र नरेन्द्र धनेन्द्र जती सब लोकपति सु करें पद-वन्दन। घाल करें तिनिकी गुणमाल विसुद्ध त्रिकाल नमों अभिनंदन।।४।। (५) श्री सुमतिनाथ जिन-वन्दना कवित्त मोह को मरम छेद सहज स्वरूप वेद। तजो सब खेद सुख कारण मुकति के।। शुभाशुभ-कर्ममल धोय वीतराग भये। सुरझे सुख-दुखनि तैं निदान चार गति के।। क्षायक-समूह ज्ञान-ज्ञायक समस्त लोक। नायक सो सुरग उरग नरपति के।। नमों कर जोर शीश नाय सो सुमतिनाथ। मेरे हृदै हजे अणि करता सुमति के।।५।। (६) श्री पद्मप्रभनाथ जिन-वन्दना कवित्त विनाशीक जगत जे विलोक जे उदास भये। छोड़ सब संगहो अभंग बन लियो है।। जोड़ पद पद्म अडोल महा आतमीक। जहँ नासा अग्र होय मग्न ध्यान दियो है।। हिरर्दै पदम जाके विर्षे मन राखों थांम। छयदि स्वरूप हो अंतिहि रस पियो है।। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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