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स्तोत्र-स्तुति-वन्दना खण्ड जैसे घट में आतमा खोजै ध्यान लगाइ। स्वपर-भेद पर-भिन्न करि छेद जगत सिव जाइ।।२६।। जह जग रीति न भीति भय हार जीति नहीं सोष। सिद्धस्वरूपी आतमा रहित अठारह दोष।।२७।। केवलदरसन-ज्ञानगुन केवलसुक्ख अनंत। केवलसिद्धस्वरूपमय परमब्रह्म निवसंत।।२८।। परमानंद पुनीत यह अस्तुति भाषा कीन। पढ़ें सुनें जे सर्दहैं करै कर्ममल छीन।।२९।। देखि-देखि असलोक' में करै चौपही बंद। संत सयाने सर्द हैं अस्तुति परमानंद।।३० ।। भिन्न-भिन्न को कहि सकै ब्रह्मरूप गुन भास। अलप बुद्धि करि अलप गुन वरनैं देवियदास।।३१।।
(२) जिनस्तुति
राग-ढार हरदौर की तीर्थंकर ध्याइये हो परमपद पाइये हो मन वच तन करि जिन चौबीस। जिनसम देव न दूसरों हो जिनवर तीन भुवनपति ईस।। तीर्थंकर ध्याइये हो परमपद पाइये हो।।१।। छुधा वसा तिन्हिकै नहीं हो तिन्हि कैं राग-दोस पुनि नाँही। जनमु धरै न मरनु करै हो आवत नहीं बुढापे माँहि।। तीर्थंकर ध्याइये हो परमपद पाइये हो।।२।। रोग सोग विसमै बिना हो निरभय निद्रारहित सुदेव। अरति खेद चिंता चुकी हो निरमद निरमोही निपसेव।। तीर्थकर ध्याइये हो परमपद पाइये हो।।३।। चौंसठ चंवर सुढारही हो तिन्हिके सीस आनि सुर-ईस। संपूरन सोभित महा हो उपमा बिनु अतिसय चौंतीस।। तीर्थकर ध्याइये हो परमपद पाइये हो।।४।।
(१) श्लोक
(२) स्तुति
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