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देवीदास-विलास देवीदास भी इसी प्रकार जिनेन्द्र की अनन्य - भक्ति में लीन होकर उन्हें अपने हृदय में बसा देने की भावना व्यक्त करते हैं
जाके गुन ध्यावत सुपावै परमारथ कौं। जाको जस गावै कोटि तीरथ के किये मैं।। जाके बैन सुनै नैंन खुले उर अंतर के। जाको नाम लेत फल सदा दान दिये मैं।। देखें सुख रूप ज्यों अतिहि रस पिये मैं। देवीदास कहैं ते सुबसौ मेरे हिये मैं।। जिनवन्दना. १/४/१७
इस प्रकार हिन्दी साहित्य के सन्त एवं भक्त कवियों के काव्यों के आलोक में देवीदास-साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि देवीदास अन्य जैन एवं जैनेतर भक्त कवियों के सदृश. होते हए भी कुछ दृष्टियों से अपनी पृथक् पहिचान बनाते हैं। अतः यह कहने में कोई संकोच नहीं कि वस्तुतः उनका साहित्य हिन्दी-साहित्य की अमूल्य निधि सिद्ध होती हैं। क्योंकि उसमें आध्यात्मिक-रहस्यों की चिन्तनपूर्ण अभिव्यक्ति के साथ उनकी चित्रमयता, मनोवैज्ञानिकता, स्वाभाविकता, सजीवता और मौलिकता विद्यमान है। उन्होंने साहित्य में अनेक छन्दों के उपयोग के साथ मडरबन्ध, गतागत छन्द आदि लिखकर समस्त हिन्दी-जगत में अपने विशिष्ट काव्य-कौशल की छाप छोड़ी है और इस माध्यम से जहाँ उन्होंने बुन्देली-प्रतिभा के गौरव को उज्ज्वल किया है, वहीं हिन्दीजगत में जैन हिन्दी साहित्य को प्रथम पंक्ति में अग्रस्थान दिलाने का भी सत्प्रयत्न किया है।
विद्यावती जैन महाजन टोली नं. २ आरा (बिहार) ८०२३०१
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