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प्रस्तावना
१०९ होती है, मानों तपरूपी गजराज के सिर पर सिन्दूर की रेखा खींची गई हो, अथवा मोह रूपी रात्रि को समाप्त करके उज्ज्वल ज्ञान रूपी प्रभात का उदय हुआ हो, अथवा अनन्त-सुख रूपी वृक्ष के दल उमंग में भर कर लहलहाने लगे हों अथवा शिवरमणी के मुख को केशर के रंग में डुबो दिया गया हो। यथा
दिपति महा अति जोर चरन कमलदुति। देखत रूप सधी जब जाकौ लेत सबै चितचोर।। कैंधो तप गजराजदई सिर भर सैंदर की कोर। मोह निसाकरि दूरि भयो कैंधो निरमल ज्ञान सुभोर।। के सिवकामिनि के मुख राख्यौ केसरि के रंग बोर।। पद पंगति- ४/ख/१८
मीरा की भक्ति में अपने प्रभु के दर्शनों की पीड़ा का जो वर्णन है, वह अत्यन्त मार्मिक और अनिर्वचनीय है। निम्नपद में उनकी अन्तर-व्यथा इस प्रकार प्रतीत हो रही है, जैसे सागर के अन्तर का मन्थन और आलोड़न उसकी उत्ताल तरंगों में दिखलाई पड़ रहा है
दरस बिन दूखन लागे नैन। जब से तुम बिछुरे प्रभु मोरे कबहुँ न पायो चैन।। मीरा के प्रभु कबरे मिलोगे दुख मेटण सुख दैन।। मीरा पदावली पृ. ११३
देवीदास के पदों में भी प्रभु के दर्शन की उत्कट-लालसा में उनके हृदय की तीव्र अन्तर-व्यथा और विकलता का दर्शन होता है
दरद भयौ जिनदेव तुम दरसन बिनु मोकौं दरद भयौ। । दीनदयाल गरीब-नवाजन या अरजी सुनि लेउ।।.. देवियदास कहत सुख दीजे प्रभु चरनन की सेउ।। पद पंगति. ४/ख/१६
मीरा अपने आराध्य के सौन्दर्य पर इस प्रकार मुग्ध हो जाती है, कि उससे दूर रहना उसके लिए कठिन हो जाता है। इसलिए वह उसे अपने नेत्रों में ही बसा लेने की बात कहती हैं। उसकी इस तन्मयता और एकरसता ने ही आराध्य से प्रत्यक्षीकरण का मार्ग सुलभ और सुगम बना दिया है। यथा
बसो मोरे नैनन में नंदलाल। .. मोहनी मूरत सांवली सूरत, नैना बने बिसाल।.. मीरा प्रभु संतन सुखदाई भगत-बछल गोपाल।। मीरा. पृ. १३३
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