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देवीदास-विलास
ज्यों जन संगति हेत नाव मैं रहति न परसैं पार |
तैसें धन दारा सुख संपति विछुरत लगें न बार ।। प्राचीन काव्य पृ. २५ देवीदास ने भी संसार के नश्वर सम्बन्धों का चित्रण नदी और नाव के माध्यम से ही किया है—
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कमला सील चला चलौ जी रूप जरा तन रोग ।
प्रीतम सुत सब जानिये जी नदी नाव संजोग ।। रे भाई तूं ।। धर्म. २/६/१४
सभी भक्त कवियों का ध्यान आराध्य के चरण-कमलों में ही मुग्ध होकर मग्न रहा है। उनकी दृष्टि से प्रभु के चरणों में इतनी शक्ति निहित है, कि उसी से भक्त का कल्याण हो जाता है । इसीलिए कवियों ने उनके चरणों का आश्रय ग्रहण करके अपने जीवन को कृतार्थ माना है। जिस प्रकार भौंरा कमल - रस का पान करके तृप्ति का अनुभव करता है, उसी प्रकार भक्त भी अपने प्रभु के चरणों की सेवा करके संसार-समुद्र से पार होकर परमतत्व में लीन हो जाता है । इसी भावना को व्यक्त करते हुए कबीर कहते हैं, कि ब्रह्म के चरण-कमलों में जो आनन्द प्राप्त होता है, उसका वर्णन कथन के द्वारा सम्भव नहीं, उसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। क्योंकि वह तो अनिर्वचनीय है
चरन कमल बंदौ हरिराई ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे अंधे को सब कुछ दरसाई । ।
बहिरौ सुनै गूंग पुनि बोलै रंक चले सिर छत्र धराई ।
सूरदास स्वामी करुनामय बार - बार बंदौ तिहिं पाई। सूरसागर - १ / १
तुलसी भी यही भावना व्यक्त करते हैं
जाऊँ कहाँ तजि चरण तिहारे ।
काकौ नाम पतितपावन जग केहि अतिदीन पियारे । । विनय १०१
मीरा भी चरणों की वन्दना करती हुई कहती हैं—
" मन रे परसि हरि के चरण ।। - मीरा की पदा. पद १
देवीदास तो जिनेन्द्र- चरणों में लीन ही नहीं रहे, अपितु उन्होंने नवीन उद्भावनाओं, कोमल कल्पनाओं और वैदग्ध्यपूर्ण व्यंजनाओं के साथ उन चरणों के सौन्दर्य और कल्याण-कारी रूप को भी व्यक्ति किया है। वे कहते हैं, कि जिनेन्द्रचरणों का सौन्दर्य अपूर्व है। उन चरणों की आभा इतनी दीप्तिमान है कि आत्मा की शोध करने वाले व्यक्तियों के चित्त का हरण हो जाता है। वह आभा ऐसी प्रतीत
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