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________________ प्रस्तावना देवीदास भी यही कहते हैं कि संसार के बाह्य - द्वन्द्वों में संलग्न रहने पर भी साधक अपने आराध्य के गुणों का स्मरण, चिन्तन एवं मनन करता हुआ अपने स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। धीरे-धीरे वह "सो ऽहं का अनुभव कर लेता है और आगे शुद्धो ऽहं में विचरण करता हुआ अपने स्वरूप में लीन हो जाता है— सोहं सोहं सो सबै जिया न दूजौ भेद । बारंबार सुचिंतवत मिटै कर्मक्रत खेद । । द्वादस २/४/३३ कवि देवीदास के और भी अनेक पद ऐसे हैं, जो हिन्दी - भक्त कवियों की विचार-धाराओं और भाव-सरणी से प्रायः समानता रखते हैं । उनमें से कुछ को तुलना की दृष्टि से यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है १०७ तुलसी ने वनवास वर्णन प्रसंग में नारी की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए सीता के द्वारा यह कहलवाया है, कि “परिवार और समाज में पति के बिना पत्नी का जीवन निरर्थक है”, अपने इस विचार को उन्होंने निम्न दृष्टान्त के द्वारा स्पष्ट किया है जिय बिनु देह नदी बिनु वारी तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी । तुलसी ने उक्त उदाहरण के द्वारा जीवन के व्यावहारिक पक्ष को स्पष्ट किया है। किन्तु देवीदास ने लगभग उसी प्रकार का दृष्टान्त देकर धर्म की प्रतिष्ठा की है। उन्होंने धर्म और अधर्म को धारण करने वाले व्यक्तियों के जीवन की धारा को स्पष्ट किया है। उनके अनुसार धर्म रहित व्यक्ति का जीवन संसार में मात्र पशु के समान होता है। समाज में जिस प्रकार पति- विहीन नारी की स्थिति होती है, उसी प्रकार धर्म विहीन व्यक्ति के जीवन की भी स्थिति होती है. यथा— मानस पृ. ३३५ ज्यों जुवतिय बिनु कंत रैन बिन चंद जोतिभर । ज्यों सरतोइ न होइ लच्छ जिम हू न सून घर । । बुद्धि. २/१६/२४ ज्यो निसि ससि बिन हूँ न है जी नारि पुरिष बिनु ते । जैसे गजदंतनि बिना जी धर्म बिना जन जे मरे भाई तूं । । धरम २ / ६ / ११ Jain Education International संसार के सभी सम्बन्ध स्वार्थ से युक्त हैं । पति, पत्नी, पुत्र और धन ये सभी क्षणिक हैं। इनका मिलन उसी प्रकार है, जैसे नदी पार करते समय कई व्यक्ति एक साथ नाव मैं बैठते हैं, और तट पर पहुँचते ही अपने पृथक्-पृथक् मार्गों में जाने के कारण एक दूसरे से बिछुड़ जाते हैं। सूर ने उक्त भावना को निम्न-पद में व्यक्त किया है ---- For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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