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देवीदास-विलास अमृत बरसै हीरा निपजै घंटा पडै टकसाल। कबीर जुलाहा भया पारखी अनभौ उतरया पार।। कबीर, परचा कौ अंग-४७
देवीदास ने भी इस समरसता का अनुभव प्राप्त किया है। वे इस रस का पान करके आनन्द-विभोर हो उठते हैं और कहते हैं
आतम रस अति मीठौ साधौ आतमरस अति मीठौ। स्यादवाद रसना बिन जाको मिलत न स्वाद गरीठौ।। पीवत होत सरस सुख सो पुनि बहुरि न उलट-पुलीठौ।।
पद पंगति-४/ख/२० किन्तु इस रस का स्वाद तो स्याद्वाद रूपी रसना के माध्यम से ही ग्रहण किया जा सकता है। कवि ने इस प्रकार एकान्त-दृष्टि का विरोध करते हुए अनेकान्तदृष्टि की प्रतिष्ठा की है। उनके अनुसार जो व्यक्ति इस रस को पी लेता है, वह पुनः इस संसार में लौट कर नहीं आता। परमात्म-पद प्राप्त करने का यह सबसे उत्कृष्ट उपाय है। अन्त में वे कहते हैं कि समरस की स्थिति आ जाने पर वही भक्त सेवक स्वयं ही साहिब भी हो जाता है, उसमें अन्य कोई स्थिति शेष नहीं रह जाती
वह सेवक साहिब वही और नहीं कनेवा। देवियदास सुदिष्टि सौं दरसे स्वयमेवा।। पद पंगति. ४/ख/२ सेवक-साहिब की दुविधा न रहै।। पुकार. २/८/२४
इस समरस रूपी सुधा को पीने वाला व्यक्ति ही परमपद (मोक्ष-पद) की प्राप्ति करने में समर्थ हो जाता है। यथा
इम सुख सुधा दृग पिवत घट होत सरल वर मोखमग। जसु इहि प्रकार वसु जाम भनि समदंसन जयवंत जग।। बुद्धि. २/१६/२३
इस समरसता का अनुभव कर लेने के पश्चात् जीव का अहंभाव स्वतः ही समाप्त हो जाता है। मुनि जोइन्दु के अनुकरण पर कबीर ने भी आत्मा-परमात्मा की मिलन-स्थिति को स्पष्ट करते हुए बतलाया है, कि जब जीव परमतत्व से एकत्व प्राप्त कर लेता है, और विश्व के सभी प्राणियों में उस परमतत्व की सत्ता आभासित होने लगती है, तब दोनों में कोई भेद नहीं रह जाता, जो ज्ञान-स्वरूप परमात्मा है, "वही मैं हूँ" और जो “मैं हूँ" वही ज्ञानस्वरूप परमात्मा है.तूं तूं करता तूं भया मुझमें रही न हूँ।
बारी फेरी बलि गई जित देखू तित हूं।। कबीर ग्रन्था. पृ. ४
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