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प्रस्तावना
१०५ कबीर ने इस आनन्द में तर्क की प्रतिष्ठा करने वालों को “मोही मन वाला” कहकर उन्हें ब्रह्म को खुले नेत्रों से पहिचानने की सलाह दी है। यथा
खुले नैन पहिचानों हंसि-हंसि रूप निहारौ। कबीर ग्रन्था. सबद ३०
वस्तुतः यह आत्मानुभव अन्तर्मुखी-वृत्ति होने पर ही प्राप्त हो सकता है। दाद ने भी इस अनुभव का पान किया था, तभी तो वे कह सके
देख्या नैन भरि सुन्दरि– दादू की बानी, परचा को अंग पृ. १३
देवीदास ने भी आत्मानुभव के द्वारा इस अलौकिक आनन्द को प्राप्त करने , की चर्चा की है। उन्होंने भेद-विज्ञान के द्वारा प्राप्त किए गए अनुभव को ही जगत का सार माना है। यथा
आतम अनुभव सार जगत महिं आतम अनुभव सार. पदपंगति- ४/ख, १४ एक समै अनभौ रस पीकरि छोड़ि भरम वघरूले। देवियदास मिलै तुमरो पद आनि तुम्हें पग धूले।। वही ४/ख/१३
उन्होंने इस अनुभव-रस का पान कर लिया था। इसीलिए इतनी सहजता से वे संसार के विषम-जाल में फंसे हुए प्राणियों को बार-बार उसके पान करने की सलाह देते हुए कहते हैं कि यह महारस अमृत की खान है। यथा
स्वाद करि अनभौ महारस परम अंम्रत खान। वही ४/ख/२६
(१६) आनन्दानुभवजन्य-समरसता
परमात्मा के प्रति प्रेम की भावात्मक अभिव्यक्ति को रहस्यवाद माना गया है। आत्मा और परमात्मा के तादात्म्य को समरसता कहा जाता है। क्योंकि दोनों के मिलन से ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है और उस आनन्द को ही रस कहा जाता है। किन्तु जैन-परम्परा में आत्मा और परमात्मा के तादात्म्य में भिन्नता है। उसमें आत्मा को एक अखण्ड ब्रह्म का अंश नहीं माना गया है, अतः उसमें परमात्मा के साथ मिलने जैसी कोई बात नहीं होती। उसके अनुसार तो आत्मा निर्मल होकर स्वयं ही परमात्मा बन जाती है।
आत्मा परमात्मा में मिलती हो या परमात्मा बनती हो, दोनों ही अवस्थाओं में समरसता एवं तज्जन्य आनन्द की अनुभूति कबीर और देवीदास दोनों के काव्य में विद्यमान है। कबीर ने आत्मा-परमात्मा के मिलन को अमृत का धारासार बरसना बतलाया है। जिस प्रकार अमृत से अमरत्व की प्राप्ति होती है, ठीक उसी प्रकार आत्मा-परमात्मा के मिलन की यह वर्षा परमपद प्रदान करती है। यथा
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