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________________ १०४ देवीदास-विलास है। वे भी इस असार-संसार-समुद्र से पार उतरने के लिए तुलसी की भाँति विनम्रता और दीनता के स्वर में बार-बार अपने सर्वज्ञ देव की पुकार करने लगते हैं और उसी क्रम में उन्हें अपना स्वामी मानकर अपने को दास रूप में व्यक्त करते हैं। तुलसी ने तो अपने आराध्य राम की भक्ति सर्वत्र दास्य-रूप में ही प्रस्तुत की है। यथा सेइये सु साहिब राम सौं।। विनय. पद १५७ तू गरीब को निवाज हैं। गरीब तेरो।। बारक कहिए कृपालु तुलसीदास मेरो।। वही. ७८/६ विरद गरीबनिवाज राम कौ।। ताते हो बारबार देव द्वार पुकार करति।। वही. ९९ देवीदास भी अपनी विनम्रता और दीनता के उद्रेक में सेव्य-सेवक-भाव की अभिव्यंजना निम्न शब्दों में करते हुए दिखलाई पड़ते हैं सेव सकल सुखदाई रे जाकी सेव सकल सुखदाई। श्री जिनराज गरीबनिवाज सुधारन काज सबै सुखदाई। पद. ४/ख/४ दीनदयाल बड़े प्रतिपात दया गुनमाल सदा सर नाई।। बैरहिं बेर पुकारत हौं जन की विनती सुनिये जिनराई।। पुकार. २/८/१ (१५) अनुभव .. आध्यात्मिक-साधना में स्वानुभूति को सभी साधकों ने स्वीकार किया है। यद्यपि वेदान्त सूत्र में “तर्कप्रतिष्ठानात् (१/१/१) सूत्र आया है, परन्तु आत्मानुभूति में तर्क के लिए कोई स्थान नहीं। जैन-परम्परा में स्वपर-विवेक के द्वारा किए गए आत्म-ज्ञान को अनुभव कहा गया है। यह अनुभव मुण्डकोपनिषद् (३/१/८) के अनुसार न तो नेत्रों से देखा जा सकता है और न वाणी द्वारा ही व्यक्त किया जा सकता है। यथा "न चक्षुर्घयते नापि वाचा।" और, “यतो वाचा निवर्तन्ते अप्राप्तमनसा सह ।।" तैत्तरीय. १/९ आत्म-साक्षात्कार के द्वारा जिस अनुभव की प्रतीति होती है, उसे चिदानन्द, चैतन्य-रस या ब्रह्मानन्द कहा जाता है। कबीर ने स्वानुभूति को महत्व देते हुए भी अद्वैतवाद के आधार पर ब्रह्म से साक्षात्कार का अनुभव किया। उनके अनुभव में भी तर्क की कोई गुंजाइश नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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