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________________ प्रस्तावना १०१ प्राचीन और संत कवियों ने यही निष्कर्ष निकाला कि केवल शास्त्र-ज्ञान में प्रवीण व्यक्ति निश्चय ही आत्म-लाभ नहीं कर सकता। यथार्थतः उसे स्वसंवेद्यज्ञान की परम आवश्यकता है। क्योंकि कोरे शास्त्र-ज्ञान से संकीर्णताओं, रूढ़ियों एवं अन्धविश्वासों को ही प्रश्रय मिलता है। विभिन्न मतों के ग्रन्थों के कारण ही वाद-विवाद होते हैं और साम्प्रदायिकता बढ़ती है। मुनि योगीन्द्र' और मुनि रामसिह ने इस कोरे शास्त्रज्ञान को त्याज्य ठहराकर एक ओर जन-जीवन के लिए ज्ञान का सहज द्वार खोल दिया, तो दूसरी ओर उन्होंने पंडित और पुरोहितों के ऊपर सीधा प्रहार भी किया, कि उनके शास्त्र एवं विचार कोरे पाखण्डों से परिपूर्ण हैं। ___ कबीर ने कोरे शास्त्र-ज्ञान का विरोध करते हुए उसी एक अक्षर को पढ़ने की सलाह दी है, जिससे आत्म-कल्याण सम्भव है। यथा पोथि पढ़ि-पढ़ि जग मुवा पंडित भया न कोय। एकै आखर पीव का पढ़े सो पंडित होय।। कबीर ग्रन्था. पृ. २०२ देवीदास ने भी कोरे शास्त्र-ज्ञान का विरोध किया है वे कहते हैं कि केवल अक्षर-ज्ञान अर्थात् शास्त्र-ज्ञान प्राप्त करके क्या होगा? क्योकि शास्त्रों में तो ज्ञान रखा नहीं। यथार्थ ज्ञान की खान तो आत्मा में निहित है। अतः ज्ञान-स्वरूपी आत्मा का अनुभव करो, तभी मुक्ति की प्राप्ति हो सकेगी। अक्षरों की चतुराई मात्र से लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव नहीं। वह तो एक मात्र दर्शनज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रय संयुक्त नित्य, सहजानन्द, महासुखकन्द आत्मा के ज्ञानश्रद्धान करने से होगा। अतः केवल निर्मल आत्मा का ध्यान करो। यथा अछिर कौं कह चेतत मूरिख अछिर मैं कह ज्ञान धरे हैं। ग्यान धरे जिहि मैं तिहि चेतु सु अछिर कौन प्रमान परे हैं।। अछिर तौ चतुराइन मैं चतुराइनि तैं कह काम सरे हैं। सौ त्रिगुनातम आतम नित्य महासुखकंद अनंद भरे हैं।। जोग. २/११/२२ (१३) सख्य- भक्ति सूर की भक्ति मुख्य रूप से सख्य-भाव की भक्ति है। उसके कारण ही उसमें ओजस्विता का स्वर प्रधान है। जैन-परम्परा में भी उस चेतन-आत्मा को, जिसमें १. परमात्मप्रकाश और योगसार पृ. ३८३, २. पाडुउदोहा पृ. ३०. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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