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देवीदास-विलास परमात्म-शक्ति निहित है, लेकिन जो अपने स्वरूप को भूलकर बाह्य क्रियाओं में भ्रमण शील है, उसे आचार्यों और कवियों ने एक सच्चे मित्र की भाँति फटकारा और उनकी भर्त्सना की है। मुनि रामसिंह ने कहा है- “हे जीव, धन और परिजन के विषय में चिन्तन करने से तुम मोक्ष रूपी सुख को प्राप्त नहीं कर सकते. इस तथ्य को जानते हुए भी तुम उसी का चिन्तन करने में अपना सुख मान रहे हो।" यथा
“मोक्खु ण पावहिं जीव तुहुँ धणु परियणु चिंतंतु। तो इ विचिंतहिं तउ जि तउ पावहि सुक्ख महंतु।।' पाहुड.-।।
कवि कुमुदचन्द्र, (१६वीं शती), जगतराम (१७वीं शती) एवं द्यानतराय (१७वीं शती) ने भी इसी प्रकार की अभिव्यंजना की है
प्रभु मेरे तुम कूँ ऐसी न चाहिए। सघन विघन घेरत सेवक कूँ।। मौन धरि किउं रहिए।। -हिन्दी जैन पद संग्रह पृ. १५ "हम टेरत तुम हेरत नाहीं यौँ तो सुजस विगारौगे। हम हैं दीन दीनबन्धु तुम यह हित कब पारौगे।।" वही. पृ. ९७ "तुम प्रभु कहियत दीनदयाल। अपन जाय मुकति में बैठे हम ज रुलत जगजाल।। तुमरो नाम जपैं हम नीके मन वच तीनों काल। तुम तो हमको कछु देत नहिं हमरे कौन हवाल।। हिन्दी जैन पद. पृ. ११५
कवि देवीदास का पद-साहित्य तो उक्त प्रवृत्ति से सर्वत्र ओत-प्रोत है। उसमें भी ओज की प्रधानता है। जिस प्रकार सूर के मीठे उपालम्भ ओज की वाणी से व्यंजित हैं, उसी प्रकार देवीदास भी अपने आराध्य के प्रति उपालम्भ व्यक्त करने में किसी से भी पीछे नहीं है। यथा
सरन जिन तेरे सुजस सुनि आयो। तुम ही तीन लोक के नायक सुरझावन उरझायो।.. श्री भगवंत अंत नहिं जाकौ छन-छन होत सवायो। ज्यौं इन बैरिनि को तुम जीते सो मुझ क्यों न बतायो। सो समुझाई कहयौ अब जौ निज चाहत पंथ चलायो। पद. ४/(ख)/७
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