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देवीदास-विलास "काहू के कुल तन न विचारत। कौन जात और पाँति विदुर की ताही के पग धारत। सूर संकलन पृ. १३५ जन की और कौन पति राखै। जाति पाँति कुल कानि न मानत, वेद पुराननि साखै।। वही पृ. १३५
परमात्म-पद की प्राप्ति के लिए देवीदास भी बाह्याडम्बर और जाति-पाँति का तीव्र विरोध करते हैं। उनके अनुसार आत्मशुद्धि के बिना व्रत, जप, तप, तीर्थभ्रमण आदि केवल आडम्बर और दिखावा है। इससे परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। उसे तो चित्त-शुद्धि और गुरु-प्रसाद से स्व-पर विवेक जागृत होने पर अपने हृदय में प्रकाशित ज्ञान से ही प्राप्त किया जा सकता है। उनके अनुसार रागादिक-मल रहित चित्त में ही परमात्मा का निवास रहता है, जो निरामय, निरंजन, ज्ञानमय होता है। अतः उसे वहीं खोजो, अन्यत्र भटकने से क्या लाभ? यथा
राखत सीस जटा केइ लुंचत केइक मूड मुडा संतोसै, केइक नगन सहित अभ्रन करि केइक अंग भभूदि समोखै। केइक धूमपान करि पाचत झूलत खात अधोमुख झौखें। केइक पंच अगिनि पिनि बैठत कस्ट सहत तप करि तन सोखै। देवियदास सकल जीवनि कौं स्वपर विवेख बिना अति जोखें।। पद् ४/ख/१५ अंग लगावत राख रहत नित मौन धारि मुख। संग भार सब नास करत तप सहत घोर दुख ।। बुद्धि. २/१६/४३
आगे भी कवि जाति-पाँति एवं कुल वंश की चर्चा करता हुआ कहता है, कि केवल तपस्वी हो जाने से या ऊँची जाति और वंश में जन्म ले लेने से ही इस भवसमुद्र को पार नहीं किया जा सकता। संसार से पार उतरने के लिए कुल, वंश एवं जाति की आवश्यकता ही नहीं है। उसके लिए तो चित्त को निर्मल बनाने की और हृदय स्थित आत्मा को विशुद्ध करने की आवश्यकता है। उसी से आत्मा का कल्याण सम्भव है
ना तापछ यह जगत में न तापछ तुम हंस। ना तापछ तुम आपनी जात पाति कुल वंस।
न तारें माता-पिता न तारै कुल गोत। उपदेश. २/१०/१६-१७ (१२) शास्त्र-ज्ञान-समीक्षा
जिस प्रकार बाह्याचार से मुक्ति की प्राप्ति सम्भव नहीं है, ठीक उसी प्रकार कोरे ग्रन्थ-ज्ञान से भी आत्म-तत्व की उपलब्धि सम्भव नहीं। गूढ़ चिन्तन के पश्चात्
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