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प्रस्तावना
इनका विरोध तीक्ष्ण उक्तियों द्वारा किया है। भावनाहीन होकर मूर्ति पूजा करने अथवा मूंड-मुंडाने एवं माला फेरने वालों को पाखण्डी कहकर उन्होंने उन पर कठोर प्रहार किया है। उनका विचार है कि इन कार्यों से समाज में विघटन की भावना प्रबल होती है। साथ ही मन विकार-रहित नहीं हो पाता। इसलिए वे सर्वप्रथम मन को वश में करने की सलाह देते हैं
"केसो कहा बिगारियो जो मूडै सौ बार। मन को काहे न मूड़िए जामैं विषै विकार।। कबीर ग्रन्था., पृ. ३६ “पाहन पूजे हरि मिलें तो मैं पूजृ पहार।" कबीर ग्रन्था., पृ. ३४ "कबीर माला काठ की कहि समझावे तोहि। मन न फिरावे आपणों कहा फिरावे मोहि।।' कबीर ग्रन्था., पृ. ३५
जायसी ने पद्मावत के जोगीखण्ड में बाह्याचार पर हल्का सा विरोध प्रगट किया है। वहाँ रत्नसेन ज्योतिषी के बाह्याचार-पालन का विरोध करता हुआ कहता है कि प्रेम-मार्ग में दिन, घड़ी आदि पर दृष्टि नहीं रखी जाती"प्रेम पंथ दिन घरी न देखा, तब देखे जब होइ सरेखा।।"
पदमावत जोगीखण्ड पद्य २. सुन्दरदास, भीखा, दादू आदि संत कवियों ने भी बाह्याडम्बर एवं जातिपाँति का विरोध किया है। तुलसी ने भी राम-भक्ति से रहित जप-तप, तीर्थ आदि क्रियाओं की आलोचना करते हुए उसकी तुलना हाथी को बाँधने के लिए बनाई गई बालू की रस्सी से की है
जोग जाग जप विराग तप सुतीरथ अटत। बाँधिवे को भव-गयंद रेनु की रजु बटत।। विनय पद. १२९ "व्रत-तीरथ तप सुनि सहमत पचि मरै करै तन छाम को। ग्यान विराग जोग जप तप भय लोभ मोह कोह काम को।। विनय. पद. १५५
उनके प्रभु भक्त-वत्सलता में बिना किसी भेद भाव के शबरी द्वारा दिए गए जूठे बेर प्रेम सहित खा लेते हैं।'
सूर ने भी भगवद्भक्ति में जाति-पाँति का विरोध किया है। उनके अनुसार भगवान तो समरस-भावी हैं। उनकी भक्तवत्सलता सबके लिए समान रूप से है। वे अपने भक्त के लिए किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं दर्शाते१. रामचरितमानस पृ. ५७२.
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