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देवीदास-विलास “भगति भजन हरि नांव है दूजा दुक्ख अपार। मनसा वाचा कर्मणा कबीर सुमिरण सार।" कबीर ग्रन्था, पृ. ४ . "मन रे राम सुमरि राम सुमिरि भाई।।" कबीर ग्रन्था., पृ. १४७ सूरदास ने भी नाम-स्मरण की महत्ता को अपने पदों में व्यक्त किया हैजौ तू राम नाम धरतो। अब कौ जनम आगिलो तेरो दोऊ जनम सुधरतो। संकलन ग्रन्थ, पृ. १३८ कित्ते दिन हरि सुमिरन बिनु खोये। प्राचीन हिन्दी काव्य, पृ २३ तुलसी भी राम नाम का जाप करते हुए जीवन का कल्याण कर लेना चाहते हैं"राम राम राम राम राम राम जपत। मंगलमुद उदित होत कलि-मल-छल-छपत। नाम सों प्रतीति प्रीति हृदय सुथिर थपत।।" विनय. पद. १३०
देवीदास ने भी आराध्य के स्मरण पर जोर दिया है और उसी के माध्यम से अपने स्वरूप को पहचानने का प्रयत्न किया है। जिनेन्द्रदेव का भाव-पूर्ण स्मरण करने से दुर्मति का नाश एवं सुबुद्धि की प्राप्ति होती है, समता रूपी जल से हृदय सराबोर हो जाता है। जिनेन्द्र की भक्ति से संसार के क्लेश दूर हो जाते हैं और सुकृत रूपी वृक्ष में मुक्ति रूपी फल लग जाते हैं। यथा
"जिन सुमिरन उर बीच बसत जब जिन सुमिरन उर बीच।" पद., ४/ख/३ “नीचगति परिहै सुमरि नर नीचगति परिहै।
मगन विसय कसाय जिम लौंन जल गरिहै।।” पद., ४/ख/१५ (e) मन
परमात्म-पद को प्राप्त करने में मन की शक्ति अचिन्त्य है। यह संसार भ्रमण और मोक्ष दोनों का कारण है। उसे विषय-वासनाओं से पृथक् करके आत्मा में स्थिर करने की स्थिति को ही योग कहा गया है। कबीर ने मन से ही मन की साधना करने की सलाह दी है। चंचल मन. को वश में करने पर ही राम रूपी रसायन का पान करना सम्भव है
“चित चंचल निहचल कीजे तब राम रसायन पीजै।” कबीर ग्रन्था.
सूर ने भी मन की स्थिरता को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जब मन वश में . हो जाता है तो फिर उस परम-आत्मा की भक्ति के अतिरिक्त उसके लिए कोई कार्य
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