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प्रस्तावना
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किए है। जबसे सतगुरु ने इस सत्य का उद्घाटन किया है, तभी से मैं भगवद्भक्ति में लीन हो गई हूँ
“सतगुरु मिलया संसा भाग्या सेन बताई साँची। न घर तेरा न घर मेरा गावैं मीरा दासी।। मीरा पदावली., पृ. २० “मैंने राम रतन धन पायौ। बसत अमोलक दी मेरे सतगुरु करि किरपा अपणायो। सत की नावखेवटिया सतगुरु भवसागर तरि आयो। मीरा पदावली., पद. १५७
देवीदास ने जैन परम्परा के अनुसार ही अरहंत, आचार्य, उपाध्याय एवं साधुपरमेष्ठी को सतगुरु माना है और स्वीकार किया है कि परमात्मा को प्राप्त करने के लिए सद्गुरु ही सच्चा पथ-प्रदर्शक है। वही शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति कराने वाला है, उसके शब्दों को हृदयंगम करने से आत्म-ध्यान में लीन होकर ही जीव अष्टकर्मों के बन्धन से छुटकारा प्राप्त करके परमात्म-पद की प्राप्ति कर सकता है
काल अनादि गए भव भीतर विमुख रहयौ सुसखा लें। सदगुरु सबद अबद करूँ भाई आतम ध्यान लगा तैं। पद., ४/ख/९ सुमति आंगुली करि अंजै अंजन सदगुरु बैन।
मोह तिमिर फाटे जबै प्रगटे अंतर नैन।। बुद्धि; २/१६/१६ (७) नाम-स्मरण
अपने आराध्य के श्रवण, कीर्तन एवं नाम-स्मरण पर सभी कवियों ने विशेष बल दिया है। आराध्य के नाम-स्मरण से भक्त का मन निर्मल होता है। यह एक आध्यात्मिक-साधना है। इसमें हार्दिक भावों का होना आवश्यक है। बिना-भाव के नाम स्मरण व्यर्थ है। इसलिए जैन-परम्परा में भावशून्य क्रिया को निरर्थक बतलाया गया है- “यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भाव-शून्याः।" कबीर ने भी इसे स्वीकार किया है और कहा है कि यदि केवल खाँड कहने से मुँह मीठा हो जाता, भोजन कहने मात्र से भूख की शान्ति हो जाती, तो राम का नाम लेने मात्र से मुक्ति भी हो जाती. लेकिन ऐसा होता नहीं है। आराध्य के भावपूर्ण स्मरण से ही साधक सांसारिक जीवन में भी अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लेने में समर्थ हो सकता है। इसी नाम-स्मरण एवं भगवद् भजन को कबीर ने इस प्रकार व्यक्त किया है
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