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प्रस्तावना
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“अंजन अलप निरंजन सार यहै चीन्हि नर करहु विचार। अंजन उतपतिवरतनिलोई बिनानिरंजनि मुक्ति न होई।। कबीर ग्रन्था; पद. ३३७
तुलसी ने भी निरंजन शब्द का प्रयोग विशुद अविनाशी और विकार रहित परमात्मा के लिए किया है। यथा
निरमल निरंजन निरविकार उदार सुख परिहरयो।। विनय. ३/३६/२ .
देवीदास ने भी कर्ममलरहित, शुद्ध, बुद्ध, निर्मल आत्मा को निरंजन की संज्ञा से अभिहित किया है। उनका कथन है, कि जब तक हृदय रूपी नेत्रों में सद्गुरुं की वाणी रूपी अंजन नहीं लगता, तब तक निर्मल-दृष्टि जागृत नहीं हो पाती। यथा
निर्मल दिष्टि जगै जब औ न लगे गुरु बैन हृदै दृग अंजन। सो सिवरूप अनूप अमूरित सिद्ध समान लखै सु निरंजन।। बुद्धि. २/१६।१७
उन्होंने राग-दोष रहित, तर्करहित, निराकार, निरविकार, शुद्ध आठ-गुणों से युक्त सिद्ध-स्वरूप को निरंजन माना है। यथा-.
देखत होत परम अहलाद राग-दोस वजि तक्कवाद। निराकार सुद्ध सु अनूप सदा सहित निज स्वगुन स्वरूप। वसु गुन सहित सिद्ध सुख धाम निरविकार निरंजन राम ।।
परमानंद., १/१/२०-२१ (६) सद्गुरु
जैन-साहित्य में पंचपरमेष्ठी में सिद्ध को छोड़कर चार परमेष्ठी की प्रतिष्ठा सद्गुरु रूप में की गई है। संत कवियों ने भी सद्गुरु की पूर्ण प्रतिष्ठा की है। कबीर ने तो उसे गोविन्द से भी श्रेष्ठ सिद्ध किया है- “बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय' किन्तु जैनाचार्यों ने दोनों को एक बतलाया है। गुरु ही गोविन्द हैं। आत्मा और परमात्मा के भेद मिटाने वाला ही गुरु है। गुरु वह है, जिसकी कृपा से ब्रह्मा की प्राप्ति हो सके। गुरु अपने ज्ञान रूपी दीपक से उस ब्रह्मा का पंथदिखलाता है। अन्तर केवल इतना ही है कि कबीर के गरु के पास तो यह दीपक था, किन्तु जैन गुरु तो स्वयं दीपक रूप होते है यथा. “गुरु दिणयरु गुरु हिमकरणु गुरु दीवउ गुरु देउ।
अप्पापरहँ परंपरहँ जो दरिसावइ भेउ।।” पाहुड़दोहा-१ “पीछे लागा जाई था लोक वेद के साथ। आगै थे सतगुरु मिल्या दीपक दीया हाथ। कबीर ग्रन्था., पृ. २
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