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देवीदास-विलास देवीदास ने भी पंच परमेष्ठी के अरहंत और सिद्ध को सगुण और निर्गुण के रूप में स्वीकार किया है। उन्होंने सगुण और निर्गुण में किसी प्रकार की कोई सीमा-रेखा नहीं खींची। क्योंकि दोनों अवस्थाएँ एक ही आत्मा की मानी गई हैं। इसलिए देवीदासे दोनों अवस्थाओं के पुजारी हैं। अपनी “पंचपद-पच्चीसी" रचना में उन्होंने सगुण और निर्गुण दोनों की स्तुति-वन्दना' की हैं। एक ओर वे उसे रूप, रेख-विहीन बतलाते हुए कहते हैं- “कि वह परम तत्व न तो हल्का है, न भारी, न कोमल है, न कटु, न सुगन्धित है, न दुर्गन्धित, वह तो केवल अनुभूति जन्य है।" सभी विकल्पताओं का त्याग करके ही उसका अनुभव किया जा सकता है, तो दूसरी ओर उसकी अर्चना, वन्दना, श्रवण, कीर्तन, पूजा आदि की चर्चा करते हुए वे कहते हैं
वंदत तसु चरनारविंद अति विवुध अनंदित। चरन कमल चरचत सुकृत्य नर पाप निकंदित।। पंचपद; २/७/४ श्रवन कथन उपदेस चितवन भजन क्रियादिक आर।
देवियदास कहत इह विधि सौं कीजै स्वगुन सम्हार।। पद; ४/ख/१४ (4) निरंजन
जैनाचार्यों ने अविनाशी, कर्ममल से रहित और केवलज्ञान से परिपूर्ण परमात्मा के लिए निरंजन शब्द का प्रयोग किया है। मुनि रामसिंह के अनुसार दर्शन और ज्ञानमय निरंजन-देव परम-आत्मा ही है। निर्मल होकर जब तक उसे नहीं जान लिया जाता तभी तक कर्म-बन्ध होता है। इसलिए उसी को जानने का प्रयत्न करना चाहिए।
कबीर ने निरंजन शब्द को ब्रह्म के पर्यायवाची के रूप में ग्रहण किया है। उन्होंने निरंजन से परमतत्व की ओर संकेत करते हुए उस तत्व को निर्गुण और निराकार भी माना है___ गोव्यंदे तू निरंजन तू निरंजन राया।
तेरे रूप नाहीं रेख नाहीं और नाहीं माया।। कबीर ग्रन्था; पृ. १२१
कबीर के अनुसार यदि महारस का अनुभव करना हैं, तो निरंजन का परिचय प्राप्त कर उसे हृदय में बसा लेना आवश्यक है। कबीर के विचार से दृश्यमान पदार्थ अंजन है और निरंजन इन पदार्थों से नितान्त पृथक है। यथा
३. परमात्म., १/१/१७;
१. पंचपद., २/७/४; २. पद., ४/ख/१०, ४. पाहुडदोहा., ७७-७९.
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