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प्रस्तावना
सूरदास ने यद्यपि अपने काव्य में पूर्ण रूप से सगुण-ब्रह्म की ही भक्ति की है तथापि कहीं-कहीं रहस्यात्मक अनुभूति के साथ उनके काव्य में निर्गुण-ब्रह्म के दर्शन भी हो जाते है
आदि सनातन एक अनूपम अविगत अल्प अहार। ओंकार आदि वेद असुर हन निर्गुण सगुण अपार।। सूर सारावली; पद. ९९३
तुलसी ने सूर की ही भाँति सगुण-भक्ति को अपनाया है। किन्तु कहीं-कहीं ब्रह्म के निर्गुण रूप की चर्चा भी कर दी है। यथा
आदि अंत कोई जासु न पावा। बिनु पद चलै सुनै बिनु काना कर बिनु कर्म करें विधि नाना। आनन रहित सकल रस भोगी बिनु बानी बकता बड़ जोगी।। मानस; पृ.. ९९
अन्य स्थल पर उन्होंने “सगुणहिं निगुणहिं नहिं कुछ भेदार'' कहकर दोनों रूपों में कोई भेद नहीं माना।
प्रारम्भ में मीरा ने भी योग-साधना को स्वीकार करके, निर्गुण-ब्रह्म की आराधना का ध्यान किया है। उनके निम्न उद्धरण में उनकी इस भावना का परिचय मिल जाता हैं
तेरो मरम नहिं पायो रे जोगी। मीरा के प्रभु हरि अविनासी भाग्य लिख्यो सौ ही पायो।
मीरा की प्रेम साधना; पृ. २८१ लेकिन बाद में उन्होंने योग-साधना के बीहण कंटकाकीर्ण असाध्य मार्ग को छोड़कर सगुण-भक्ति को अपनाकर अपने इष्टदेव की उपासना माधुर्य-भाव से की। उन्होंने आराध्य को प्रियतम माना और स्वयं उनकी प्रेयसी बनकर अहर्निश उनकी बाट जोहती रहीं. यथा
पीव-पीव मैं र= रात दिन दूजी सुधि बुधि भागी री। मीरा व्याकुल अति अकुलानी पियाकी उमंग अति लागी री।।
मीरा पदावली पद. ९१।
१. मानस; पृ. ९९।
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