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________________ o देवीदास-विलास (४) निर्गुण-सगुण जैनधर्म में निर्गुण का अर्थ है- पूर्ण वीतरागता। परमात्म-पद प्राप्त करने के लिए इसी वीतरागता से परिपूर्ण आराध्य का चिंतन, मनन एवं ध्यान किया जाता है। कबीर ने भी निराकार और निर्गुण ब्रह्म की आराधना की है। किन्तु इसके साथ ही उन्होंने कहीं-कहीं सगण ब्रह्म का वर्णन भी किया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका ब्रह्म निराकार और साकार. अद्वैत और द्वैत, अभाव-रूप और भावरूप हैं। उन्होंने सत्, रज और तम से रहित ब्रह्म को निर्गुण और विश्व के कणकण में व्याप्त होने से सगुण माना है। वह बाहर से भीतर तक और भीतर से बाहर तक एक जैसा फैला है। कबीर ने जाने-अनजाने जैन-दर्शन के अनेकान्त को अपनाकर ही ब्रह्म के इन विविध रूपों का अनुभव किया है। यथा “संतो धोखा कासों कहिये। गुण में निर्गुण निर्गुण में गुण। बाट छांड़ि क्यों बहिये।। कबीर ग्रन्था., पृ. १११ उनकी सत्यान्वेषक बुद्धि ने उस ब्रह्म को जब जिस रूप में समझा, परखा, तब उसी रूप में ग्रहण किया। कबीर ने इस अनेकान्त दृष्टि को किस सम्प्रदाय से ग्रहण किया? इसके सम्बन्ध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन है, कि “कबीर पर नाथ-सम्प्रदाय का बहुत अधिक प्रभाव था और नाथ सम्प्रदाय में जो बारह सम्प्रदाय अन्तर्भुक्त किये गए थे, उनमें पारस-सम्प्रदाय और नेमि-सम्प्रदाय भी थे। ये सम्प्रदाय जैन थे। इसलिए नाथ-सम्प्रदाय में अनेकान्त का स्वर अवश्य था। भले ही उसका स्वरूप कुछ अस्पष्ट रहा हो।" — कबीर ने उस परमतत्व को अनुपम, अरूपी तथा पुष्प-सुगन्ध से भी झीना बतलाया है। . पूर्व में जिसको जोइन्दु “निष्कल" और मुनि रामसिंह “निसंग" कह चुके थे। उसी को कबीर ने निर्गुण कहा है _ “निर्गुण राम जपहु रे भाई।" . १. कबीर, पृ. ३०४, अचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी। २. कबीर ग्रन्थावली, पृ. ६४।। ३. परमात्म. १/२५। '४. पाहुडदोहा., १००। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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