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देवीदास-विलास
नित उठि जरा कीन्हा परगासा। पावक रह जैसे काष्ठ निवासा। बिना जुगति कैसे मथिया जाई। काष्ठे पावक रहा समाई।। .
संकलन ग्रन्थ., पृ. ४८ (२) परमात्मा के विविध नाम-रूप
जैन-परम्परा में प्राचीन काल से ही जिनेन्द्र देव को अनेक नामों से अभिहित किया जाता रहा है। जोइन्दु', मुनि रामसिंह', मानतुंगरे, भट्ट अकलंक प्रभृति ने उसे यद्यपि ब्रह्मा, विष्णु, शिव, निरंजन आदि नामों से पुकारा है। फिर भी वह इन सभी पौराणिक नामों से विलक्षण है। वह तो शुद्ध, बुद्ध और शाश्वत है। भले ही उसे किसी भी नाम से पुकारा जाय किन्तु उसका तात्पर्य केवल अखण्ड, अविनाशी आत्मा या परमात्मा से ही होगा। जैनदर्शन की दृष्टि से उक्त समस्त नामावली शुद्ध आत्मा की ही प्रतीक या पर्यायवाची है।
कबीर ने भी उपर्युक्त परम्परा से प्रभावित होकर निर्गुण ब्रह्म को राम, शिव, विष्णु, गोविन्द, निरंजन एवं अल्लाह आदि नामों से पुकारा है। किन्तु उनके राम दशरथ-पुत्र न होकर सबसे भिन्न और सबसे ऊपर परम-आत्मा के ही प्रतीक हैं। कबीर की मान्यता यह रही है कि, जो जन्म लेता और मरता है, वह राम नहीं, माया है। उनका विष्णु तो जगत् का विस्तार है, गोविन्द समस्त ब्रह्माण्ड को धारण करने वाला है और राम युगों-युगों तक उस ब्रह्माण्ड में रहने वाला है। यथा
अलह अलख निरंजनदेव, किह विधि करौं तुम्हारी सेव। विस्न सोई जाको विस्तार सोई कृस्न जिनि कीयो संसार।।
- कबीर ग्रन्था., पद, ३२५ किन्तु आगे वे कहते है कि समस्त विश्व के नष्ट हो जाने पर भी राम अविनश्वर . रहता है___ "कहै कबीर सब जग विनस्या राम रहे अविनाशी रे। कबीर ग्रन्था., पृ. ४६३
देवीदास ने प्राचीन परम्परा के अनुसार ही जिनेन्द्र देव को अनेक नामों से सम्बोधित किया है। इन्होंने उसे ब्रह्मा, शिव, जगदीश, हरि, हर, एवं राम आदि कहकर पुकारा है। इन सभी नामों का अभिप्रेत अविनाशी-आत्मा ही है। यथा
१. परमात्मप्रकाश, २/२००; ३. भक्तामर स्तोत्र, २५,
२. पाहुडदोहा., ५४, २१५; ४. अकलंक स्तोत्र, २,३,४,१०.
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