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प्रस्तावना
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दादू (१५४४ ई.) ने भी परमात्मा को घट के अन्दर ही स्थित माना है और उसे तीर्थों में न खोजकर घट में खोजने की सलाह दी है
"केई दौड़े द्वारिका केई कासी जाहि। केई मथुरा कौ चले साहिब घट ही मांहि।” दादू की बानी, पृ १६
सूर ने भी ब्रह्म और जीव में कोई भेद नहीं माना। उनका कथन है कि माया के वशीभूत होकर ही जीव अपने स्वरूप को भूल जाता है
-अपुनपौ आप ही बिसरयो। जैसे स्वान काँच मंदिर में भ्रमि-भ्रमि भूक मरयो।। सूरसागर, ३६९
तुलसी ने भी जीवात्मा को परमात्मा से भिन्न नहीं माना। उनके मतानुसार जीव माया के कारण ही अपने वास्तविक स्वरूप को विस्मृत कर देता है
“जिय जब हरि तें बिगान्यौ तब देह गेह निज जान्यौ। माया बस स्वरूप बिसरायो तेहि भ्रम तें दारुन दुख पायो।।'' विनयपद, १३६
देवीदास ने जैन-दर्शन के अनुरूप ही परमात्मा की स्थिति शरीर रूपी मन्दिर में स्वीकार की है
देह देवरे मैं लखों निरमल निज देवा। जजन-भजन विहवार सों कह मारत ठेवा।। पद. ४/ख/२ अप्पा आपु यही घट माहीं। परमानन्द., १/१/१ ।
कवि देवीदास के अनुसार इस परमतत्व को भेद-विज्ञान के बिना नहीं जाना जा सकता। भेद-विज्ञान अपनी शक्ति से जीव और शरीर को अलग-अलग करके चेतन को स्वानुभव की शक्ति प्रदान करता है। इसलिए उसे “हिये की आँखे' कहा गया है। कवि ने जीव और देह की पृथकता को निम्न रूप में व्यक्त किया है
पाहन में जैसे कनक दूध दही में घीउ। काठ माहि जिम अगनि है त्यों शरीर में जीउ।। परमानंद., १/१/२४ जैसे काठमाहि वसै पावक सुभाव लियै हाटक सुभाव लिये।.... जैसे चिदानंद लियै आपनौ स्वरूप सदा भिन्न है निदान बसै देह की गहल मैं।। वीत., २/९/२४ कबीर ने भी शरीर और आत्मा की भिन्नता को इसी प्रकार दर्शाया है- -
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