SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देवीदास - विलास ८६ का साम्य भी परिलक्षित होता है। उनमें एक ओर कबीर (१३९८ ई.) जैसा रहस्यवाद, पाखण्ड-विरोध एवं सतगुरु की महत्ता का उद्घोष है, तो दूसरी ओर सूर ( १४७८ ई.) तुलसी (१५३२ ई.) और मीरा (१५०३ ई.) जैसी भक्त - वत्सलता, अनन्यता एवं तन्मयता भी विद्यमान है। अपने पदों की रचना जिस प्रकार कबीर, सूर, तुलसी एवं मीरा ने गौरी, सारंग, सोरठ, ध्रुपद, भैरवी, बिलावल, धनाश्री, रामकली, जयजयवन्ती, यमन, मलार, केदार, कानरा आदि विभिन्न राग-रागनियों में की, उसी प्रकार देवीदास ने भी उक्त राग-रागनियों में सुन्दर एवं सरस पदों की रचना की है। संगीत की रसप्रवणता और माधुर्य उनके पदों में सर्वत्र व्याप्त है । इस कथन के स्पष्टीकरण के लिए यहाँ उनका संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है (१) आत्मा-परमात्मा हम पूर्व में ही कह आए हैं कि जैन-दर्शन में आत्मा के तीन भेद माने गए हैं। इसमें बहिरात्मा को मिथ्यात्व से युक्त मलिन बतलाया गया है। अन्तरात्मा शुद्ध और सात्विक होती है एवं आत्मा का सर्व विशुद्ध रूप ही परमात्मा है। उसे ब्रह्म भी कहा गया है। जैनेतर हिन्दी- भक्ति-काव्य में ब्रह्म को आराध्य माना गया है एवं आत्मा को भक्त। आत्मा उसकी आराधना में लीन रहता है। वैदिक-धर्म के अनुसार आत्मा, परमात्मा का ही एक अंश है, जबकि जैन धर्म में आत्मा स्वतन्त्र अस्तित्व वाला है और वह स्वयं विशुद्ध होकर परमात्मा भी बन जाता है । जायसी (१४९५ई.) ने सूफीमतानुसार ब्रह्म की स्थिति हृदय में मानकर जगत् को उसकी प्रतिच्छाया के रूप में देखा है। यथा— " काया उदधि चितव पिंड पाहाँ । देखौ रतन सौं हिरदय माहाँ ।। " जायसी ग्रन्था. १०, पृ. १७७ तात्पर्य यह है कि इसी पिण्ड में परमात्मा रूपी प्रियतम प्रतिष्ठित है । जायसी ने इसी को शाश्वत माना है। सूफी मत में आत्मा के दो रूप स्वीकार किए गए हैं१. संसारी, और २. विवेकी । जायसी ने आत्मा की ज्ञानरूपता, स्वपर प्रकाशरूपता, चैतन्यरूपता, नित्य शुद्ध परमप्रेमास्पदरूपता और सद्रूपता को स्वीकार किया है। उन्होंने बतलाया है कि अन्तर्मुखी साधना के द्वारा परमात्मा से साक्षात्कार सम्भव है। कबीर के अनुसार जीव और ब्रह्म पृथक् नहीं है। इसलिए वे कहते हैं— "कबीर दुनिया देहुरे सीस नवांवण जाई । हिरदा भीतर हरि बसै तू ताही सौं ल्यौ लाई । । " कबीर ग्रन्था. १०, पृ. १०५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy