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________________ ७२. देवीदास-विलास (९) अर्द्ध तुकगुपत गतागत-दोहरा यह छन्द भी तुकुगुपत दोहरा के समान ही हैं। किन्तु चित्र में बंधे रहने पर इसके पढ़ने की शैली में कुछ अन्तर है। इसके पढ़ने से ही सुन्दरता परिलक्षित हो पाती है। यथा नई नव सरस वर दसा दर वस रस वन ईन। नहीं न गुर पद चिर भनी भर चिद पर गुन हीन।। विवेक. २/१३/१६ इस प्रकार कवि ने उपर्युक्त छन्दों को अपने काव्य-ग्रन्थ में अपनाकर उसे विशिष्टता प्रदान की है। (च) भाषा-विश्लेषण भाषा भावाभिव्यक्ति की संवाहिका मानी गई हैं। भाषा ही भावों की प्रेषणीयता का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। प्रामाणिक एवं गम्भीर विचारों को व्यक्त करने के लिए उचित एवं सन्तुलित भाषा का होना नितान्त आवश्यक है। इसके अभाव में कवि अपने कवि-कर्म में सफल नहीं हो सकता। कवि देवीदास इस क्षेत्र में भी एक सिद्धहस्त लेखक सिद्ध होते हैं। देवीदास-साहित्य की भाषा प्रधान रूप से १८ वीं शताब्दी की बुन्देली मिश्रित हिन्दी है। किन्तु उसमें तत्सम, और तद्भव शब्दों के साथ-साथ प्राकृत, अपभ्रंश, ब्रज, अवधी, राजस्थानी तथा उर्दू एवं फारसी आदि भाषाओं के शब्दों का भी अभाव नहीं हैं। कवि ने भाषा की गुणग्राहकता को ध्यान में रखकर ही लोक-प्रचलित अन्य भाषाओं की शब्दावलियों को ग्रहण किया है और अपनी भाषा के भाण्डार को समृद्ध बनाया है। जहाँ तक भाषा-ध्वनियों का प्रश्न हैं, उनमें प्राचीन हिन्दी (अथवा अपभ्रंश) की ध्वनियों के समान ही परिवर्तन की झलक दिखलाई पड़ती है। यथा स्वर-ध्वनियाँ (१) इ के स्थान पर "अ" का आदेश। जैसे इस-अस (परमानंद. २९) (२) “ए” के स्थान पर “इ” का प्रयोग। जैसे एक-इक (वीत. ४/३) (३). 'ऐ' के स्थान पर "औ" का प्रयोग। जैसे ऐसा-औसो (वीत. ३/४) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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