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प्रस्तावना
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की काव्य-प्रतिभा का परिचायक है। इस छन्द में उन्होंने लय और संगीत का अदभुत समन्वय किया है, जिसने काव्य-सौन्दर्य को बढ़ा दिया है। यथा
परम धरम धन लखत, चखत न तन तरवर फल।। बुद्धि. २/१६/२० (६) सवैया सर्वगुरु
कवि ने प्रस्तुत छन्द का भी प्रयोग किया है, जिसके सभी वर्ण गुरु हैं। उसने इस छन्द में मिथ्यादृष्टि साधुओं एवं अन्य मतावलम्बियों की आलोचना तीव्र शब्दों में की है। यथा
सासी सूधी जानैं नाही लाग्यौ झूठी काया माहींपापारंभी डंभी आपा माया ता मैं हूल्यों है। बुद्धि. २/१६/३५
(७) राछरौ
“राछरौ' शब्द बुन्देलखण्डी-भाषा का है, जो हिन्दी-साहित्य के “रासा" शब्द का ही समानान्तर है। यह एक प्रकार का गीतरूप एवं काव्यरूप है। कवि ने “स्वजोग' नामक गीत इसी छन्द में रचा है। यथा
संसय सहित विमोह मैं भव कानन माही विभ्रम जत बल तीन। भूल्यौ आत्मा भव कानन मांही कर्म उदै मिथ्यात।। स्वजोग., ६/२/५
(८) तुकगुपत दोहरा
यह भी एक नया छन्द है जैसा कि उसके नाम से ही विदित होता हैं, इस छन्द की तुक रहस्यमय अर्थात् छिपी हुई हैं। चित्र में बँधे होने पर ही इसकी विशिष्टता का दिग्दर्शन किया जा सकता हैं। जिसे चित्र-बन्ध प्रकरण में चित्रित किया गया हैं। इसकी रचना करके कवि देवीदास ने हिन्दी छन्द-जगत् में एक नई शैली वाले छन्द की उद्भावना की है। यथा
भज वन तम जग दावि गन अति धूर सहै बैन। भव तजि दाग अधू सबै जिन मग बिनु तरि हैन।। विवेक. २/१३/१३
१. सन्देश. पृ. ६५-६६
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