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________________ प्रस्तावना ७३. (४) "ऋ" के स्थान पर “इ”। जैसे वृद्धापन-विरधापन (पुकार. १५/३), दृढ़-दिड (परमानंद.१०११) (५) “ऋ' के स्थान पर 'रि'। जैसे ऋतु-रितु (पद. २८), ऋण-रिनु (राग. १४/६)। (६) कहीं-कहींऋस्वर यथावत् सुरक्षित है। जैसे—मृग-मृग(बुद्धि.४१/३)। व्यंजन ध्वनियों व्यञ्जन ध्वनियों में भी कुछ परिवर्तन उपलब्ध होते हैं। उदाहरणार्थ१. 'ख' ध्वनि के स्थान पर 'ष' का प्रयोग। यथा शिखिर-सिषिर (पंचपद. १०/१), मुख-मुष (जीवचतु. ४/१६); सुख-सुष (उपदेश. २/१) २. कहीं-कहीं 'क' के स्थान पर 'ख' और 'ख' के स्थान पर 'क' का प्रयोग। जैसे विवेक-विवेख (जोग. १४/२), सरीखे-सरीके (दसधा. ८/१) ३. 'ड' के स्थान पर “र” का प्रयोग। यह बुन्देली बोली की अपनी विशेषता हैं। उदाहरणार्थकेवड़ा-केवरा (मारीच. १४/४); करोड़-करोर (मारीच. १५/७) एवं क्रोर (पद. ४१/१ ख/२३); जुड़े-जुरे (पुकार. २२/२); छिड़क छिरक (पंचवरन. ४/३)। ४. "क्ष" के स्थान पर 'छ'। कहीं-कहीं 'ख' का भी प्रयोग। जैसे-क्षणछिन (परमानंद. १५/१), क्षोभ-छोभ (जोग.३/२) मोक्ष-मोख (बुद्धि.२४/१)। ५. 'ज्ञ' के स्थान 'ग्य' का प्रयोग। यथा प्रतिज्ञा- प्रतग्या (तीन मूढ़. १५/१); ज्ञान-ग्यान (वीत. २७/१), कहीं-कहीं 'ज्ञ' का प्रयोग भी मिलता हैं। जैसे ज्ञानी-ज्ञानी (वीत. २३/१); सुज्ञानी-सुज्ञानी (वीत. २३/१)। ६: "त्र" के स्थान "तिर" का प्रयोग। जैसे त्रियंच-तिरजंच (मारीच. ९/४); त्रिदोष-तिरदोस (पुकार. २/१)। ७. “थ' के स्थान पर “त' का प्रयोग। जैसे-हाथ-हात (बुद्धि. ४५/१)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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