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| 10 जनवरी 2011
जिनवाणी
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सप्तकोटिमहामन्त्राश्चित्तविभ्रमकारकाः। एक एव महामन्त्री गुरुरित्यक्षरद्वयम्।।
(गुरुगीता,39) अर्थ:- सात करोड़ बड़े-बड़े मन्त्र चित्त में विभ्रम उत्पन्न करते हैं। दो अक्षरों वाला 'गुरु' शब्द ही अद्वितीय महामन्त्र है। 'अष्टपाहुड' की टीका में उद्धृत यह श्लोक कितना मार्मिक है
ये गुरुं नैव मन्यन्ते पूजयन्ति स्तुवन्ति न।
अन्धकारी भवेत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे।। अर्थ:- जो गुरु को ही नहीं मानते, न पूजा और न स्तुति करते हैं, सूर्य का उदय होने पर भी उनके लिये अन्धकार होता है।
'श्री गुरुमहिमा' नामक पुरस्कृत कृति के लेखक आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी गुरु के विषय में पृष्ठ 33 पर लिखते हैं
"......ऐसे महामहिम अकारण करुणालय से मनुष्य कभी उऋण हो सकता है?" सारांश में यही कहना होगा कि गुरु की महिमा अवर्णनीय हैस्याही समुद्र भर हो, लिपि सर्व भाषा, पन्ना धरा, कलम हो सुरवृक्ष-शाखा। माँ शारदा यदि सदा लिखती रहेगी, तो भी न पार गुरु का वह पा सकेगी।
(क्षुल्लक श्री ध्यानसागर जी कृत पुस्तक 'गुरु-शिष्य-दर्पण' से साभार)
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