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| 10 जनवरी 2011 | | जिनवाणी गुरु शब्द का विश्लेषण करते हुए पृष्ठ 425 पर लिखा है- "GURU" के एक-एक अक्षर का स्पष्ट एवं पृथक् उच्चारण करें। तीन बार दोहराने पर ऐसा लगेगा कि "GURU" स्वयं शब्दरूप में कहता है: GGeel U-you R-are...U-you! अर्थात् अहो! तुम,.... तुम हो! यही तो सारतः सर्व गुरुओं का कार्य
रॉबर्ट ई. स्वोबोड कहते हैं कि सच्चे गुरु, शिष्य की सुविधा को गौण कर उसे ऐसा रगड़ते हैं कि वह जीवन की प्रत्येक परीक्षा में खरा उतर सकता है। वे कच्चे शिष्यों की भीड़ नहीं, किन्तु कुछ ऐसे पक्के शिष्य चाहते हैं जिन पर उन्हें गर्व हो।
26 वर्ष भारत की खोज करने वाले ‘ए सर्च इन सिक्रेट इण्डिया' A Search in secret India नामक पुस्तक के लेखक डॉ. पॉल ब्रण्टन का मन्तव्य है : गुरुत्व के बाह्य आडम्बर में यद्यपि सत्य लुप्तप्राय हो चुका है, तो भी भारतीय संतों में आज अध्यात्म का पूर्णतः अभाव नहीं हुआ है। ऊपर से सीधे-सादे अथवा सिरफिरे लगने वाले कुछ ऐसे साधक हैं, जिनका अन्तस् विस्मयकारी अनुभवों का भण्डार है। प्रत्येक साधु को अनपढ़ अथवा पाखण्डी समझ बैठना बड़ी भारी भूल है।
जोसेफ स्पार्टी The runnin wolf में कहते हैं कि श्रेष्ठ गुरु वह है, जिसकी फिर आवश्यकता नहीं रह जाती, जो शिष्य को सर्वोच्च विकास की ही प्रेरणा देता है, जो शिष्य को स्वावलम्बी, स्पष्ट, रचनात्मक, चिन्तनशील, निष्पक्ष-विश्लेषक, आज्ञाकारी और अनुशासित बनाता है। जब शिष्य की समझ, गुरु की समझ से भी उन्नत हो जाये तब समझ लो कि गुरु ने पूर्ण सफलता पा ली। ऐसी निःस्वार्थ एवं उच्च-मानदण्डों वाली विरक्त-छवि में ही गुरु की कल्पना साकार हो सकती है।
डॉ. पॉलाहोरन ने अपनी कृति रेकी-108 प्रश्नोत्तर' के 'समर्पण' में लिखा है : 'मेरे उन शिष्यों को समर्पित, जिनमें से कुछ मेरे श्रेष्ठ गुरु रहे हैं!'
भारतीय मनीषियों के विचार भी कितने सुंदर हैं- बिना अनुभवी गुरुओं की साक्षी के धारा गया व्रत अवश्य ही भंग हो जाता है। (प्रभु-वाणी/पृ. 11/4-4/जिनेन्द्र वर्णी)
स्वामी मुक्तानन्द का यह कथन बड़ा महत्त्वपूर्ण है: 'गुरु की महत्ता यह है कि तुम जो खोज रहे हो, वह उन्हें मिल गया है।' (गुरुतत्त्वसार, पिछला कवर पृष्ठ) ‘कठोपनिषद्' में कहा है
__नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः ।। अर्थः- यह आत्मा न प्रवचन द्वारा, न बुद्धि से और न अनेक शास्त्रों द्वारा प्राप्त होने योग्य है। यह जिसे वर ले, उसी से प्राप्त होने योग्य है।
इसी परिप्रेक्ष्य में नरेन्द्रसेनाचार्य विरचित ग्रन्थ 'सिद्धान्तसार' का यह श्लोक अत्यन्त प्रासंगिक
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