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________________ जिनवाणी 64 शिष्य के हृदय का ताप हरते हैं । निर्मल- हृदय वाले गुरु-शिष्य दोनों दुर्लभ हैं । शिष्यत्व को कलङ्कित करने वाले ब्राह्मण वायुभूति ने तो अपने सगे मामा शिक्षा - गुरु पुरोहित सूर्यमित्र के मुनि होने पर उन्हें भला-बुरा कह कर तिरस्कृत किया और एकलव्य की गुरु भक्ति का अनुचित लाभ उठाने वाले गुरु द्रोणाचार्य पर आश्चर्य होता है, जिन्होंने गुरु-दक्षिणा के छल से उस बेचारे का अंगूठा ही कटवा लिया। निःस्वार्थ गुरु एवं समर्पित शिष्य धन्यं हैं। अमरावती के युवा कवि मनोजीत जैन ने एक दोहे में लिखा हैदुर्लभ हैं जग में अहो! ऐसे पावन दृश्य । स्वार्थ रहित गुरु हो जहाँ और समर्पित शिष्य ॥ 10 जनवरी 2011 गुरु-भक्ति गुरु के अलौकिक गुणों के समीप लाने वाली शक्ति है। वह किसी सन्त- विशेष का मोह नहीं, अपितु गुणी-व्यक्तित्व का बहुमान है । भावना का मूल्य विज्ञापन से अधिक है क्योंकि समर्पण में कोलाहल नहीं होता । निज-गुरु की कीर्ति के प्रचार-प्रसार के साथ इतर की अवमानना गुणानुराग नहीं, व्यक्तिवाद है । व्यक्तिवाद पक्षपात से उत्पन्न होता है और सांप्रदायिक- विद्वेष को उत्पन्न करता है । सन्त, ग्रंथ और पन्थ के नाम पर होने वाला मानवता का विभाजन, अध्यात्म का नहीं, कटुता का विस्तार है । यथार्थ गुरु-भक्ति में विनीत-भाव का दर्शन होता है, आडम्बर का नहीं। किसी की आलोचना करना अपनी श्रेष्ठता का प्रमाण नहीं है, क्योंकि श्रेष्ठता दोष-मुक्ति का नाम है। अन्तर्निरीक्षण द्वारा निजपरीक्षण करने पर ही दोष-मुक्ति संभव है । जो गुरु के बिना असंभव है। किसी के विचारों से मन को बांधने की अपेक्षा अपने विचारों को पढ़ कर मन के विकारों की पहिचान करके उन्हें विसर्जित करना संघर्ष-मुक्ति की सहज - साधना है । 1 Jain Educationa International कभी गुरु अपने शिष्य को प्रतीक्षा कराते हैं, इस परीक्षा में धैर्यवान् ही खरा उतरता है । गुरुचरणों में पाप-विसर्जन का संकल्प लेना साधना का प्रारम्भिक चरण है । अवसर पा कर भी पाप की इच्छा न होना अधिक महत्त्वपूर्ण है। दीक्षा पूर्णता नहीं, भूमिका है। वेश और परिवेशमात्र का परिवर्तन, जीवनन-परिवर्तन नहीं है । महान् होने का भ्रम, महान् होने में बाधक है। गुणी होने का दिखावा, अवगुणों को दृढ़ करता है। तपस्या द्वारा देह-शोषण तभी सार्थक है, जब उसके साथ विकार-शोषण भी हो। भोली जनता की श्रद्धा का अनुचित लाभ उठाना आत्मवञ्चना है, साधुता नहीं । जीवन के किन्हीं कर्तव्यों से घबराकर संसार से मुख मोड़ लेना और त्यागवृत्ति अपनाकर एक काल्पनिक संतोष के भ्रम में जीना वैराग्य नहीं, पलायन है। अपने पैर पुजवाना सुगम है, पूज्य होना कठिन है। उत्कृष्टता पद से नहीं, गुणों से आती है। तृष्णा का रूपान्तरण, तृष्णा-मुक्ति नहीं है। गुरु ही सच्चा मार्ग दिखा सकते हैं। गुरु के विषय में पाश्चात्त्य विद्वानों ने भी बड़े सुन्दर विचार प्रकट किये हैं । उदाहरणार्थज्योतिर्विद्या की देवी लिंडा गुडमैन ने अपनी पुस्तक 'स्टार साइन्स' (STAR SIGNS) में आंग्ल भाषा में For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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