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|| 10 जनवरी 2011 ||
जिनवाणी लेकर परावलंबी जीवन जीना चाहता है। ऐसे साधकों का जीवन प्रायः रोग ग्रस्त नहीं होता। परन्तु फिर भी प्राण
और पर्याप्तियों का पूर्ण संयम न रखने से, पूर्व उपार्जित असातावेदनीय कर्मों के उदय से, वर्तमान में उपलब्ध अशुद्ध खान-पान, प्रदूषण, पर्यावरण, दुर्घटना, आसपास के दूषित वातावरण के प्रति सजगता और सावधानी न रखने के प्रभाव से अथवा शरीर की रोग प्रतिकारात्मक क्षमता कमजोर हो जाने से रोग होने की संभावना रहती है। अतः उनके साथ भी जब तक जीवन है, कम अथवा ज्यादा सहनशक्ति एवं मनोबल की क्षमताओं के अनुरूप स्वास्थ्य की समस्याएँ जुड़ी रहती हैं। स्वस्थ कौन?
स्वस्थ का मतलब विकार मुक्त अवस्था। जब ये विकार शरीर में होते हैं तो शरीर, मन में होते हैं तो मन, भावों में होते हैं तो भाव और आत्मा में होते हैं तो आत्मा विकारी अथवा रोगी कहलाती है। स्वस्थता तन, मन और आत्मोत्साह के समन्वय का नाम है। जब शरीर, मन, इन्द्रियाँ और आत्मा ताल से ताल मिला कर सन्तुलन से कार्य करते हैं, तब ही अच्छा स्वास्थ्य कहलाता है। जिसका शरीर, मन एवं आत्मा विकारों से मुक्त हो, वही पूर्ण स्वस्थ होता है। जितने-जितने अंशों में साधक इन विकारों से मुक्त होता है, उतना-उतना ही वह । स्वस्थ होता है। रोग सुरक्षा हेतु स्वावलंबी सुझाव
प्रकृति का सनातन सिद्धान्त है कि जहाँ समस्या होती है, उसका समाधान उसके आस-पास अवश्य होता है। अतः जोरोगशरीर में उत्पन्न होते हैं उनका बचाव एवं उपचार शरीर में अवश्य होना चाहिये।शरीर का विवेकपूर्ण एवं सजगता के साथ उपयोग करने की विधि स्वस्थ एवं निर्दोष स्वावलम्बी जीवन की आधारशिला होती है। मानव की क्षमता, समझ और विवेक जागृत करना उसका उद्देश्य होता है। अच्छे स्वास्थ्य हेतु साधु की जीवन शैली कैसी हो, ताकि रोग होने की संभावनाएँ कम से कम हों, इस बात की सामान्य जानकारी प्रत्येक साधक को आवश्यक रूप से होनी चाहिए। ऐसी साधारण चन्द निर्दोष अग्रांकित बातों की सतर्कता रखने से श्रमण वर्ग अपनी साधना में बिना दोष अथवा कम से कम दोषों का सेवन कर, अनेक रोगों से सहज बच सकते हैं एवं स्वस्थ रह सकते हैं। भोजन करते समय ध्यान देने योग्य बातें
" साधक को अपने स्वास्थ्य के अनुकूल ही आहार मिले, सदैव संभव नहीं होता। गृहस्थों के घर जो निर्दोष आहार उपलब्ध होता है, उसी को ग्रहण कर समभाव से जीवन निर्वाह करना पड़ता है। परन्तु भोजन कैसे करना? कब करना? कितना करना? उसके स्वयं के विवेक एवं नियंत्रण पर निर्भर करता है। भूख लगने पर भोजन करना जितना आवश्यक होता है, उससे भी अधिक उसका पूर्ण पाचन आवश्यक होता है। इसलिए यथासंभव साधक को ऐसा ही भोजन करना चाहिए जिसका सरलता से पूर्ण पाचन हो सके अथवा जो आहार ग्रहण किया जाए उसको पचाने हेतु आवश्यक सतर्कता रखी जाए। अतः साधक को पाचन के नियमों पर विशेष
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