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10 जनवरी 2011 जिनवाणी 408
जैनश्रमण की रोग-प्रतिरक्षात्मक स्वावलम्बी
जीवनशैली डॉ. चंचलमल चोरडिया
संयम-जीवन की साधना हेतु स्वास्थ्य का समीचीन रहना आवश्यक है। श्रमणश्रमणी निर्दोषतापूर्वक नीरोग किस प्रकार रह सकते हैं, इस हेतु विविध स्वावलम्बी उपायों की चर्चा डॉ. चोरडिया ने अपने आलेख में की है। रोगों से बचाव के साथ उनकी निर्दोष पद्धति से स्वयं चिकित्सा कर लेना श्रमण-श्रमणियों के लिए तो उपादेय है ही, श्रावक-श्राविकाओं के लिए भी उपादेयता असंदिग्ध है। -सम्पादक
असंय
साधु-जीवन की सीमाएँ
आत्मार्थी साधक आत्म-शोधन को सर्वाधिक प्राथमिकता देता है न कि शरीर पोषण को। वह अपने मन, वचन और काया पर पूर्ण नियन्त्रण रख प्रत्येक प्रवृत्ति को सम्यक् प्रकार से करने का जीवन पर्यन्त संकल्प लेता है। पांच समिति और तीन गुप्ति रूपी आठ प्रवचन माताएं उसकी साधना में सुरक्षा कवच की भांति सहयोग करती हैं। वह शरीर का तब तक ही खयाल रखता है, जब तक शरीर आत्मोथान में सहयोग देता है। क्योंकि मोक्ष-प्राप्ति तक आत्मा शरीर के बिना नहीं रह सकती। अतः शरीर की उपेक्षा कर साधक साधना भी नहीं कर सकता। अधिकांश शारीरिक रोगों का मुख्य कारण प्रायः जाने-अनजाने प्राप्त 10 प्राणों एवं 6 पर्याप्तियों का
म.दरुपयोग.क्षमता के अनरूप उपयोग न करना अथवा प्रकति के स्वास्थ्य संबंधी सनातन सिद्धान्तों की उपेक्षा करना होता है। आहारादि के संयम से शरीर में रोग उत्पन्न होने की संभावनाएँ काफी कम हो जाती हैं
और यदि रोग की स्थिति हो भी जाती है तो आहारादि के संयम से, पुनः शीघ्र स्वास्थ्य को प्राप्त किया जा सकता है। जैन श्रमण का जीवन यथासंभव पूर्ण रूप से संयमित, नियमित, स्वावलंबी एवं पापरहित होता है। वह तीन करण और तीन योग से हिंसा का त्यागी होता है। अर्थात् मन, वचन एवं काया द्वारा पाप प्रवृत्तियों से बचता हुआ, 42 दोष टाल गृहस्थों से निर्दोष, अपनी निम्नतम आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। साधक अनावश्यक बाह्य साधनों का उपयोग भी नहीं लेता है। प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों का यथा संभव पालन करते हुए, प्राणिमात्र को बिना कष्ट पहुँचाने की भावना एवं आचरण में सजगता रखते हुए स्वयं का जीवन चलाने हेतु आवश्यक प्रवृतियाँ भी पूर्ण सावधानी पूर्वक करता है। सच्चा श्रमण वर्ग अपनी साधना में उपचार हेतु अनावश्यक दोष लगाना नहीं चाहता और न अपने शिष्यों अथवा सहयोगियों से उपचार हेतु अनावश्यक सेवा
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