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________________ 410 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 || ध्यान देना एवं उनका पालन करना आवश्यक है। प्रथमतः भोजन को पूर्ण चबा-चबा कर खाना चाहिए ताकि दांतों का कार्य आंतों को न करना पड़े। दूसरा विवेक यह कि भोजन के तुरन्त पश्चात् पानी नहीं पीना चाहिए। विशेष रूप से सायंकालीन भोजन के पश्चात् इसका पालन कठिन होता है। अतः संभव हो तो उन्हें सायंकालीन भोजन का त्याग कर देना चाहिए। भोजन के तुरन्त बाद में पानी पीने से पेट की जठराग्नि शान्त हो जाती है और आमाशय में भोजन को पाचन के लिए आवश्यक पेन्क्रियाज, लीवर, गाल ब्लेडर आदि से मिलने वाले पाचक रस पतले हो जाते हैं। जिससे आमाशय में भोजन का पूर्ण क्षमता से पाचन नहीं हो सकता। अपचा भोजन अनेक रोगों का प्रमुख कारण होता है। तीसरी बात यह है कि प्रायः श्रमणों को शारीरिक श्रम की अधिक आवश्यकता नहीं होती है। अतः उनके भोजन पाचन में अपेक्षाकृत अधिक समय लगता है। अतः उनके दो आहार के बीच में कम से कम आठ घंटे का अन्तराल अवश्य होना चाहिए। इसके साथ ही निहार के आसन में एवं सूर्य स्वर में भोजन करने से पाचन अच्छा होता है। भोजन करने के पश्चात् कुछ समय व्रजासन में बैठने से भी पाचन में सहायता मिलती है। हमारे ऋषि मुनियों ने कहा- “एक समय खाने वाला योगी, दो समय खाने वाला भोगी, तीन समय खाने वाला रोगी होता है।" श्रमण वर्ग को इस तथ्य की गहराई में जाकर आचरण करना चाहिए। यदि ऐसा संभव न हो तो साप्ताहिक उपवास अवश्य करना चाहिए। उपवास के समय शरीर अपने दोष (वात, पित्त, कफ) को खाता है और शरीर स्वस्थ होने लगता है। अन्य ध्यान रखने योग्य तथ्य 1. सर्दी और गर्मी का कानों पर अपेक्षाकृत प्रथम एवं अधिक प्रभाव पड़ता है। अतः जहां साधारण वातावरण से अधिक ठण्डे या गरम वातावरण में जाना हो तो जुकाम होने की संभावना रहती है। उदाहरण के लिए गर्म हवाओं अथवा लू में विचरण करते समय, सर्दी के समय अन्दर से बाहर आते समय, सर्दी से पुनः गरम वातावरण में जाते समय परिवर्तित तापमान से प्रभावित हवा का कान के पर्दो से तुरन्त स्पर्श न हो- इसका ध्यान रखना चाहिए। सावधानी के लिए ऐसे समय यदि कानों में रुई रखी जावे तो, वातावरण में परिवर्तन से होने वाले रोग प्रायः नहीं होते। 2. प्रातःकाल दोनों हथेलियों को आपस में मिला, दोनों अंगूठों से नाक के दोनों नथूनों को पूरा दबाकर, मुंह को फूलाकर, श्वास को बाहर निकालने का जितना सहन हो सके नियमित प्रयास करने से गले, नाक एवं कान में जमे विजातीय तत्त्व दूर होने लगते हैं। संबंधित कोशिकाएँ सक्रिय होने लगती हैं तथा इनसे संबंधित रोग होने की संभावनाएँ कम हो जाती हैं। जुकाम, श्वसन, थायराइड एवं पेराथायराइड, गले तथा कान के रोग प्रायः नहीं होते हैं। 3. गले से कबूतर की भांति आवाज निकालने का प्रयास करने से गला साफ होता है, जिससे गले एवं श्वसन तंत्र बराबर कार्य करने लगता है। इससे खांसी, दमा, आवाज में भारीपन आदि रोगों में शीघ्र आराम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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