SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 302 जिनवाणी 10 जनवरी 2011 विचलित हो गया हो, तो उसे उपदेश देकर या ज्ञानीजनों के संपर्क में लाकर या यथोचित सहायता देकर, साता उपजाकर उसके परिणामों को पुनः धर्म के स्थिर करना, दृढ़ श्रद्धावान बनाना, स्थिरीकरण आचार है। ( 7 ) वात्सल्य - जैसे माता अपनी संतान पर प्रीति रखती है, उसी प्रकार स्वधर्मीजनों पर प्रीति रख उन्हें यथा योग्य आवश्यक वस्तुओं से सहायता देकर उनके प्रति वात्सल्य भाव रखना । (8) प्रभावना - जैन धर्म की अपने गुणों से प्रभावना करना एवं धर्म संबंधी अज्ञान को दूर करना प्रभावना आचार है। प्रभावना आठ प्रकार से होती है, यथा विद्या, वादी, कथा, शास्त्री, हो निमित्तज्ञ, तपस्वी महान । कविता करे, प्रगट व्रत लेकर, चमका दे जो धर्म महान || अर्थात्- 1. विद्यापारंगत हो, 2. वादी हो, 3. कथा व्याख्याता हो, 4 शास्त्रज्ञ हो, 5. निमित्तज्ञ (कालज्ञ) हो, 6. तपस्वी हो, 7. कवि हो, 8. सबके समक्ष विशेष व्रत धारक हो । इन प्रभावनाओं से सम्यग्दर्शन की पुष्टि और धर्म की प्रभावना होती है। अतएव योग्यतानुसार इनकी पालना करना कराना प्रभावना आचार है । 3. चारित्राचार - जो क्रोध आदि चार कषायों से अथवा नरक आदि चारों गतियों से आत्मा को बचाकर मोक्ष गति में पहुँचावे वह चारित्राचार है । अतः चारित्र के दोषों से यतनापूर्वक बचकर गुणों को धारण करना चाहिए। चारित्र के आठ आचार हैं " पणि हाय-जोग जुत्तो, पंच समिईहिं गुत्तिहिं । एस चरितायारो, अट्ठविहो होइ नायव्वो ।” (1) ईर्या समिति- इसके चार प्रकार हैं- (1) आलम्बन - ( रत्नत्रय का आलम्बन रखे), (2) कालरात्रि में विहार न करे। सूर्यास्त से पूर्व जहाँ भी मकान या वृक्षादि ठहरने योग्य स्थान हो वहीं रह जाय। रात्रि में परठने का प्रसंग हो तो जयणापूर्वक गमनागमन करे । ( 3 ) मार्ग - उन्मार्ग (जिसमें सचित्तता हो, दीमक आदि के घर हो) से गमन न करे। (4) यतना- इसके चार भेद हैं- (क) द्रव्य से-नीची दृष्टि रखकर चलना। (ख) क्षेत्र से - देह के बराबर आगे मार्ग देखकर चलना । (ग) काल से- रात्रि में प्रमार्जन कर एवं दिन में देखकर चलना । (घ) भाव से - रास्ता चलते अन्य कार्य जैसे वार्तालाप, पठन, पृच्छना आदि न करे । ( 2 ) भाषा समिति - यतना पूर्वक बोलना। इसके भी चार प्रकार हैं- (1) द्रव्य से - क्लेश पैदा करने वाली, कठोर, सावद्य, पीड़ाकारी, कषाय उत्पन्न करने वाली भाषा एवं विकथा न करे । (2) क्षेत्र से- रास्ता चलते न बोले । ( 3 ) काल से - प्रहर रात्रि के बाद बुलन्द आवाज में न बोले तथा (4) भाव से देश काल के अनुकूल सत्य, तथ्य और शुद्ध भाव से बोले । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy