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________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 303 ( 3 ) एषणा समिति - शय्या ( स्थानक ), आहार, वस्त्र और पात्र निर्दोष ग्रहण करे। इसके भी चार भेद हैं- (1) द्रव्य से - 42 तथा 47 दोषों से रहित शय्या आदि वस्तुओं का उपभोग करे। (2) क्षेत्र से - आहार- पानी को दो कोस से आगे ले जाकर न भोगे । ( 3 ) काल से - खान-पान आदि पदार्थ प्रथम प्रहर में लाकर चौथे प्रहर में न भोगे । (4) भाव से संयोजना आदि माण्डले के पाँच दोषों को न गावे तथा किसी भी वस्तु पर ममत्व न रखे। ( 4 ) आदान - भाण्डमात्र - निक्षेपणा समिति - उपकरणों को यतनापूर्वक ग्रहण करे एवं स्थापित करे । उपकरण दो प्रकार के होते हैं- (1) सदा उपयोग में आने वाले, जैसे रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि । इन्हें 'उग्गहिक' कहते हैं। (2) जो कभी -कभी उपयोग में आवे जैसे पाट, चौकी आदि। इन्हें उपग्रहिक कहते हैं। साधु उपकरण तीन प्रकार के रख सकते हैं- (1) काष्ठ का, (2) तुम्बा का, (3) मिट्टी का । इस समिति के भी चार प्रकार हैं- (1) द्रव्य से- यतनापूर्वक ग्रहण करे एवं करावे । (2) क्षेत्र से गृहस्थ के घर में रखकर ग्रामानुग्राम विहार न करे । पडिहारी को यथा समय लौटा दे। (3) काल से - प्रातः एवं सायंकाल वस्त्रों, पात्रों और उपकरणों का प्रतिलेखन करे। (4) भाव से - उपकरणों का उपयोग सावधानी एवं विवेक पूर्वक करे । (5) परिष्ठापनिका समिति - मल, मूत्र, पसीना, वमन, नाक का मैल, कफ, नाखून, बाल, मृतक शरीर आदि अनुपयोगी वस्तुओं को जयणा सहित परठावे । इसके भी चार प्रकार हैं- (1) द्रव्य सेयतनापूर्वक निरवद्य परठने योग्य भूमि पर त्याग करे । (2) क्षेत्र से क्षेत्र के स्वामी की आज्ञा लेकर, यदि कोई स्वामी न हो तो शक्रेन्द्र जी से आज्ञा लेकर जहाँ किसी प्रकार के क्लेश की संभावना न हो, वहाँ परठावे। (3) काल से दिन में अच्छी तरह देख-भाल कर निरवद्य भूमि में परठे और रात्रि के समय, दिन में पहले ही देखी हुई भूमि में परठे। (4) भाव से - शुद्ध उपयोग पूर्वक यतना से परठे। जाते समय 'आवस्सहि' शब्द तीन बार बोले । परठते समय (स्वामी की आज्ञा को सूचित करने के लिए) 'अणुजाणह में मिउग्गहं' पद बोले । परठने के बाद 'वोसिरामि' शब्द तीन बार कहे । अपने स्थान पर वापस आने पर 'निस्सही' शब्द तीन बार कहे । फिर इरियावहियं का प्रतिक्रमण कहे । तीन गुप्तियों का स्वरूप:- मन, वचन एवं काया यह तीन महान शस्त्र हैं। अतः इन तीनों पर नियंत्रण अत्यावश्यक है। ( 6 ) मनोगुप्ति - संरम्भ, समारंभ और आरंभ, इन तीनों से मन को हटाकर उसे धर्मध्यान तथा शुक् में लगाना, मनो- गुप्त है। मनोगुप्ति से कर्म बंध रुकते हैं और आत्मा में निर्मलता बढ़ती है। ( 7 ) वचनगुप्ति - संरंभ आदि सावद्य का प्रतिपादन करने वाले वचनों का त्याग करना । प्रयोजन होने पर उचित, सत्य, तथ्य, पथ्य, निर्दोष तथा परिमित वचनों का उच्चारण करना । प्रयोजन न होने पर मौन धारण करना वचन गुप्त है । वचन गुप्ति का पालन करने से आत्मा सहज हो अनेक प्रकार के दोषों से बच जाती है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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