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10 जनवरी 2011
जिनवाणी
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( 3 ) एषणा समिति - शय्या ( स्थानक ), आहार, वस्त्र और पात्र निर्दोष ग्रहण करे। इसके भी चार भेद
हैं- (1) द्रव्य से - 42 तथा 47 दोषों से रहित शय्या आदि वस्तुओं का उपभोग करे। (2) क्षेत्र से - आहार- पानी को दो कोस से आगे ले जाकर न भोगे । ( 3 ) काल से - खान-पान आदि पदार्थ प्रथम प्रहर में लाकर चौथे प्रहर में न भोगे । (4) भाव से संयोजना आदि माण्डले के पाँच दोषों को न गावे तथा किसी भी वस्तु पर ममत्व न रखे।
( 4 ) आदान - भाण्डमात्र - निक्षेपणा समिति - उपकरणों को यतनापूर्वक ग्रहण करे एवं स्थापित करे । उपकरण दो प्रकार के होते हैं- (1) सदा उपयोग में आने वाले, जैसे रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि । इन्हें 'उग्गहिक' कहते हैं। (2) जो कभी -कभी उपयोग में आवे जैसे पाट, चौकी आदि। इन्हें उपग्रहिक कहते हैं। साधु उपकरण तीन प्रकार के रख सकते हैं- (1) काष्ठ का, (2) तुम्बा का, (3) मिट्टी का । इस समिति के भी चार प्रकार हैं- (1) द्रव्य से- यतनापूर्वक ग्रहण करे एवं करावे । (2) क्षेत्र से गृहस्थ के घर में रखकर ग्रामानुग्राम विहार न करे । पडिहारी को यथा समय लौटा दे। (3) काल से - प्रातः एवं सायंकाल वस्त्रों, पात्रों और उपकरणों का प्रतिलेखन करे। (4) भाव से - उपकरणों का उपयोग सावधानी एवं विवेक पूर्वक करे ।
(5) परिष्ठापनिका समिति - मल, मूत्र, पसीना, वमन, नाक का मैल, कफ, नाखून, बाल, मृतक शरीर आदि अनुपयोगी वस्तुओं को जयणा सहित परठावे । इसके भी चार प्रकार हैं- (1) द्रव्य सेयतनापूर्वक निरवद्य परठने योग्य भूमि पर त्याग करे । (2) क्षेत्र से क्षेत्र के स्वामी की आज्ञा लेकर, यदि कोई स्वामी न हो तो शक्रेन्द्र जी से आज्ञा लेकर जहाँ किसी प्रकार के क्लेश की संभावना न हो, वहाँ परठावे। (3) काल से दिन में अच्छी तरह देख-भाल कर निरवद्य भूमि में परठे और रात्रि के समय, दिन में पहले ही देखी हुई भूमि में परठे। (4) भाव से - शुद्ध उपयोग पूर्वक यतना से परठे। जाते समय 'आवस्सहि' शब्द तीन बार बोले । परठते समय (स्वामी की आज्ञा को सूचित करने के लिए) 'अणुजाणह में मिउग्गहं' पद बोले । परठने के बाद 'वोसिरामि' शब्द तीन बार कहे । अपने स्थान पर वापस आने पर 'निस्सही' शब्द तीन बार कहे । फिर इरियावहियं का प्रतिक्रमण कहे । तीन गुप्तियों का स्वरूप:- मन, वचन एवं काया यह तीन महान शस्त्र हैं। अतः इन तीनों पर नियंत्रण अत्यावश्यक है।
( 6 ) मनोगुप्ति - संरम्भ, समारंभ और आरंभ, इन तीनों से मन को हटाकर उसे धर्मध्यान तथा शुक् में लगाना, मनो- गुप्त है। मनोगुप्ति से कर्म बंध रुकते हैं और आत्मा में निर्मलता बढ़ती है।
( 7 ) वचनगुप्ति - संरंभ आदि सावद्य का प्रतिपादन करने वाले वचनों का त्याग करना । प्रयोजन होने पर उचित, सत्य, तथ्य, पथ्य, निर्दोष तथा परिमित वचनों का उच्चारण करना । प्रयोजन न होने पर मौन धारण करना वचन गुप्त है । वचन गुप्ति का पालन करने से आत्मा सहज हो अनेक प्रकार के दोषों से बच जाती है।
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