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________________ 301 जिनवाणी 10 जनवरी 2011 ( 6 ) व्यञ्जन - शास्त्र के व्यञ्जन, स्वर, गाथा, अक्षर, पद, अनुस्वार, विसर्ग, लिंग, काल आदि जानकर भली भांति समझकर न्यून, अधिक या विपरीत न बोलना । इस हेतु व्याकरण का ज्ञाता होना चाहिए। (7) अर्थ - शास्त्र का विपरीत अर्थ न करे और न सही अर्थ को छिपावे । अपना मनमाना 'अर्थ भी न करे । ( 8 ) तदुभय- मूल पाठ और अर्थ में विपरीतता न करे । पूर्ण शुद्ध और यथार्थ पढ़े, पढ़ावे, सुने और सुनावे। 2. दर्शनाचार - सम्यग् दर्शन की निःशंकित आदि रूप से शुद्ध आराधना करना दर्शनाचार है। इसके भी आठ आचार निम्न प्रकार जानें " निस्संकिय निक्कंखिय, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उववूह- थिरीकरणे, वच्छल्ल, पभावणे अट्ठ॥” (1) निःशंकित - अपनी अल्पबुद्धि के कारण शास्त्र की कोई बात समझ में न आवे, तो शास्त्र (जो जिन प्ररूपित है) पर शंका न करे। वीतराग सर्वज्ञप्रभु कभी भी न्यूनाधिक असत्य उपदेश नहीं फरमाते। उन्होंने केवलज्ञान में जैसा वस्तु स्वरूप देखा है, वैसा ही प्ररूपित किया है। इस प्रकार दृढ़ विश्वास रखना उसमें किंचित् भी संशय न करना, निःशंकित आचार कहलाता है। (2) नि:कांक्षित - मिथ्यात्वियों के चमत्कार, आडम्बर, एषणाओं की संपूर्ति आदि देख, उनके मत को स्वीकार करने की अभिलाषा न करना और ऐसा भी न कहना कि ऐसा अपने मत में भी होता, तो अच्छा था । कारण कि आत्मा का कल्याण मिथ्या ढ़ोंग आडम्बरों से नहीं होता, तो कर्मबन्ध के हेतु होते हैं। आत्मा का कल्याण तो रत्नत्रय की सम्यग् साधना से ही होगा। (3) निर्विचिकित्सा - धर्म - करणी के फल पर संदेह न करना । जैसे मुझे कार्य करते-करते इतना समय हो गया, फिर भी कोई फल दृष्टिगोचर नहीं हुआ। दूसरे, निर्ग्रथ, त्यागी, तपस्वी संतसतियों के मलिन वस्त्र देखकर उनके प्रति घृणा न आने देना । ग्रहण (4) अमूढ दृष्टि - जैसे जौहरी की दृष्टि हीरे और काच के भेद को भली-भांति जानकर हीरे को करती है, वैसे ही तत्त्वज्ञ जिनवाणी को सर्वोत्कृष्ट मान, अन्य मत-मतान्तरों को महत्त्व नहीं देता। उसकी दृढ़ मान्यता होती है कि वाणी तो घणेरी पण वीतराग तुल्य नहीं, इनके सिवाय और चौरासी (या छोरा सी) कहानी है।' इस प्रकार की शुद्ध भेद-दृष्टि रखना अमूढ़ दृष्टि आचार कहलाता है। ( 5 ) उपवृंहण - सम्यग् दृष्टि और साधर्मी के थोड़े से भी सद्गुण की हृदय से प्रशंसा करना और वैयावृत्त्य या सहयोग कर उसके उत्साह को बढ़ाना । ( 6 ) स्थिरीकरण - अन्य मतावलम्बियों के संसर्ग से या अन्य किसी भी कारण से कोई धर्म से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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