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| जिनवाणी
| 10 जनवरी 2011 ॥ समितियों एवं तीन गुप्तियों से संयुक्त हैं, ऐसे इन छत्तीस गुणों से सुशोभित आचार्य होते हैं। (प्रवचन सारोद्धार, द्वार 64)।
उपर्युक्त छत्तीस गुणों में भी पंचाचार पालन का विशेष महत्त्व है। जिनशासन की प्रभावना की दृष्टि से ये बड़े उपयोगी हैं। अतः सभी मोक्षमार्ग के अनुयायियों के लिए ये विशेष रूप से जानने एवं समझने योग्य होने से, इनका उल्लेख यहाँ संक्षेप में किया जाता हैपंचाचार का स्वरूप- .. 1. मोक्ष के लिए किया जाने वाला ज्ञानादि आसेवन रूप अनुष्ठान विशेष आचार कहा जाता है। 2. आध्यात्मिक गुणवृद्धि के लिए किया जाने वाला आचरण आचार कहलाता है। 3. पूर्व महापुरुषों से आचरित ज्ञानादि आसेवन विधि को आचार कहते हैं।
ये आचार पाँच कहे हैं जो संक्षेप में निम्न प्रकार हैं1. ज्ञानाचार
सम्यक् तत्त्व का ज्ञान कराने के कारणभूत श्रुतज्ञान का आठ दोषों से रहित पठन करना ज्ञानाचार है। ज्ञान के आठ आचार हैं
"काले, विणये, बहुमाणे, उवहाणे तह यऽणिण्हवणे।
वंजण-अत्थ तदुभये, अट्ठविहो णाणमायारो।" (1) काल- दिन के और रात्रि के प्रथम और अंतिम चार प्रहर में, कालिक और अन्यकाल में
उत्कालिक सूत्र, चौंतीस असज्झाय (अस्वाध्याय) के दोषों का निवारण करके यथोक्त काल में
शास्त्र पठन करना। (2) विनय- ज्ञानी की आज्ञानुसार विनयपूर्वक ज्ञान ग्रहण करना। उन्हें आहार, वस्त्र, पात्र, स्थान
आदि के द्वारा यथोचित साता पहुँचाना और वे जब शास्त्र सुनावें या वाचनी देवें तब आदर और एकाग्रता के साथ उनके वचनों को 'तह त्ति' कहकर स्वीकार करना। ज्ञानदायक साहित्य आदि को नीचे या अपवित्र स्थान में न रखना तथा समय-समय पर उनकी पलेवणा (प्रमार्जना) करना
आदि। (3) बहुमान- गुरु आदि ज्ञानी तथा ज्ञान दाता का बहुत आदर करना और तैंतीस आशातनाओं (गुरु
आदि ज्येष्ठों के आगे और बराबर बैठने आदि) का त्याग करना। (4) उपधान- शास्त्र-पठन आरम्भ करने से पहिले और पीछे जो आयम्बिल आदि करने का विधान
है, उसकी पालना करना। उसे उपधान तप कहते हैं। (5) अनिह्नव- विद्यादाता (चाहे छोटा या अप्रसिद्ध हो) का नाम नहीं छिपाना और उसके बदले
किसी दूसरे बड़े या प्रसिद्ध विद्धान का नाम न लेना। विद्यादाता के गुण या उपकार को नहीं छिपाना।
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