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: 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 280
आचारांगसूत्र में श्रमण-जीवन
श्री मानमल कुदाल
आचारांगसूत्र में साधना के अनमोल मार्गदर्शक सूत्र उपलब्ध हैं, जो न केवल श्रमण-श्रमणियों के लिए उपयोगी हैं, अपितु साधनाशील श्रावक-श्राविकाओं के लिए भी वे उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं। मूर्छा को तोड़कर किस प्रकार समता, अप्रमत्तता साधना में आगे बढ़ा जा सकता है, इसका मार्गदर्शन आचारांग सूत्र में उपलब्ध है। आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में श्रमणाचार से सम्बद्ध व्यावहारिक नियम दिए गए हैं। -सम्पादक
श्रावकधर्म से आगे की कोटि श्रमणधर्म है। श्रमण-धर्म के लिए हमारे प्राचीन आचार्यों ने आकाश-यात्रा शब्द का प्रयोग किया है। यह श्रमण धर्म की यात्रा साधारण यात्रा नहीं है। उत्तराध्ययन सूत्र के 19 वें अध्ययन की गाथा 39 में कहा गया है- “साधु होना, लोहे के जौ चबाना है, दहकती ज्वालाओं को पीना है, कपड़े के थेले को हवा से भरना है, मेरु पर्वत को तराजू पर रखकर तौलना है, और महासमुद्र को भुजाओं से तैरना है। इतना ही नहीं, तलवार की नग्न धार पर नंगे पैरों चलना है।"
श्रमण-जीवन के लिये भगवान महावीर ने अपने अन्तिम प्रवचन उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है“साधु को ममता रहित, निरंहकार, निःसंग, नम्र और प्राणिमात्र पर समभावयुक्त रहना चाहिए। लाभ हो या हानि, सुख हो या दुःख, जीवन हो या मरण, निन्दा हो या प्रशंसा, मान हो या अपमान, सर्वत्र सम रहना ही साधुता है। सच्चा साधु न इस लोक में कुछ आसक्ति रखता है और न परलोक में। यदि कोई विरोधी तेज कुल्हाड़े से काटता है या कोई भक्त शीतल एवं सुगन्धित चन्दन का लेप लगाता है, साधु को दोनों पर एक जैसा ही समभाव रखना होता है। वह कैसा साध जो क्षण-क्षण में राग-द्वेष की लहरों में बह निकले, न भूख पर नियंत्रण रख सके और न भोजन पर।"
जैन धर्म में श्रमण का पद बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। आध्यात्मिक विकासक्रम में उसका स्थान छठा गुणस्थान है, और यहाँ से यदि निरन्तर ऊर्ध्वमुखी विकास करता रहे तो अन्त में वह चौदहवें गुणस्थान की भूमिका पर पहुँच जाता है और फिर गुणस्थानातीत होकर सदाकाल के लिए अजर-अमर, सिद्ध-बुद्ध और मुक्त हो जाता है। जैन साहित्य में श्रमण-जीवन सम्बन्धी चर्या का बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। ऐसा सूक्ष्म एवं नियमबद्ध वर्णन अन्यत्र मिलना कठिन है। यही कारण है कि आज के युग में जहाँ दूसरे सम्प्रदाय के साधुओं का नैतिक पतन हो गया है वहाँ जैन साधु अब भी अपने संयम-पथ पर चल रहे हैं। आज भी उनके संयम की झांकी के दृश्य आचारांग, उपासकदशांग, दशवैकालिक, आवश्यक सूत्र,
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