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जिनवाणी
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10 जनवरी 2011 दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ एवं जीतकल्प तथा दिगम्बर परम्पराभिमत मूलाचार, भगवती आराधना, अनगारधर्मामृत आदि ग्रन्थों में देखे जा सकते हैं।
आगम साहित्य में जैन श्रमण की नियमोपनियम सम्बन्धी जीवनचर्या का अतीव विराट् एवं तलस्पर्शी वर्णन है। विशेष जिज्ञासुओं को आगम - साहित्य का अध्ययन करना चाहिए । यहाँ हम संक्षेप में आचारांगसूत्र में वर्णित श्रमणचर्या का परिचय दे रहे हैं:
आचारांग सूत्र में श्रमण-चर्या
जहाँ तक आचारांग में प्रतिपादित आचार नियमों का प्रश्न है मूलतः वे सभी नियम अहिंसा, अनासक्ति एवं अप्रमत्तता को केन्द्र में रखकर बनाये गये हैं। जीवन में अहिंसा और अनासक्ति को किस चरम सीमा तक अपनाया जा सकता है इसका आदर्श हमें आचारांग में देखने को मिल सकता है। आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध जहाँ आचार के सामान्य सिद्धान्तों को प्रस्तुत करता है, वहाँ द्वितीय श्रुतस्कन्ध उनके व्यवहार पक्ष को स्पष्ट करता है। विद्वानों ने आचारांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध को प्रथम श्रुतस्कन्ध की व्यावहारिक व्याख्या ही माना है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में मूलतः अहिंसा, अनासक्ति, कषायों और वासनाओं के विजय का सूत्र रूप में संकेत किया गया है, जबकि दूसरे श्रुतुस्कन्ध में इनसे ऊपर उठकर कैसा जीवन जीया जा सकता है, इसका चित्रण किया गया है। दूसरा श्रुतस्कन्ध मूलतः मुनिजीवन में भोजन, वस्त्र, पात्र आदि सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति किस प्रकार की जाय, इसका विस्तार से विवेचन करता है। आचारांग का आचार पक्ष व्यावहारिक दृष्टि से कठोर कहा जा सकता है, किन्तु उसमें साधना के जिस आदर्श स्वरूप का चित्रण है, उसके मूल्य को नकारा नहीं जा सकता। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में श्रमण चर्या
आचारांग में सर्वप्रथम सूत्रकार ने पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को बतलाते हुए क्रियाओं की विपरीतता तथा क्रियाओं से होने वाले प्रभावों पर प्रकाश डाला है, जो किसी भी साधक अथवा श्रमण के लिए प्रेरणा का कार्य करती है। इसके आगे मूर्च्छित मनुष्य की क्या दशा होती है ?, इस पर प्रकाश डाला गया है। डॉ. के.सी. सोगानी अपनी आचारांग चयनिका की प्रस्तावना में इसकी विशद चर्चा की है। उनके अनुसार वास्तविक स्व-अस्तित्व का विस्मरण ही मूर्च्छा है । इसी विस्मरण के कारण मनुष्य व्यक्तिगत अवस्थाओं और सामाजिक परिस्थितियों से उत्पन्न सुख-दुःख से एकीभूत होकर सुखी - दुःखी होता रहता है। मूर्च्छित मनुष्य स्व-अस्तित्व (आत्मा) के प्रति जागरूक नहीं होता है, वह अशांति से पीड़ित होता है, समता भाव से दरिद्र होता है, उसे अहिंसा पर आधारित मूल्यों का ज्ञान देना कठिन होता है तथा वह अध्यात्म को समझने वाला नहीं होता है ( 18 ) * । मूर्च्छित मनुष्य इन्द्रिय-विषयों में ही ठहरा रहता है (22)। वह
* लेखक ने डॉ. कमलचन्द सोगाणी कृत एवं प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर से प्रकाशित 'आचारांग चयनिका' की प्रस्तावना को अपने आलेख का आधार बनाया है तथा कोष्ठक में जो सूत्र संख्या दी है वह भी आचारांग चयनिका के सूत्रों के अनुसार है। -सम्पादक
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