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जिनवाणी
| 10 जनवरी 2011 || दसवें गुणस्थान में आने पर संज्वलन लोभ का उदय हो जाता है, किन्तु ग्यारहवें गुणस्थान में रहते किसी भी कषाय का उदय नहीं रहता।
बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँ गुणस्थान क्षपक श्रेणि करने वाले चरम शरीरी साधकों को ही प्राप्त होता है। ये अप्रतिपाती गुणस्थान हैं। अर्थात् इन्हें प्राप्त करने वाले अर्थात् क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ होने वाले संयत नीचे नहीं गिरते हैं। वे उसी भव में मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। श्रमण जीवन और आराधना
संयम-जीवन अंगीकार कर जो निरतिचार संयम का पालन करते हैं तथा जाने-अनजाने जो दोष लगे भी हैं तो उनका आलोचना, प्रायश्चित्त आदि द्वारा शोधन कर लेते हैं, ऐसे सजग, सरल एवं समत्व भाव में लीन साधक आराधकता को प्राप्त होते हैं।
__ जो श्रमण जीवन में छठे-सातवें गुणस्थान में रहते वैमानिक देवलोक का आयुष्य बन्ध कर लेते हैं, वे आराधक होते हैं। चौथे से सातवें गुणस्थान में रहते यदि कोई भी जीव आगामी भव का आयुबन्ध कर लेते हैं तो वे भी आराधक कहलाते हैं। अर्थात् सम्यक्त्व अवस्था, श्रावकपना अथवा साधुपने में रहते जो आगामी भव की आयु बान्ध लेते हैं, वे आराधक बन जाते हैं। ऐसे साधक अधिकतम 15 भव करके मोक्ष चले जाते हैं, 15 भव वैमानिक व मनुष्य के ही करते हैं। शेष 22 दण्डकों के तो हमेशा के लिये ताले लगा देते हैं।
• भगवती सूत्र शतक 25 उद्दे. 6 में तो कहा है कि 5 समिति एवं 3 गुप्ति का ज्ञान रखने वाला श्रमण भी संयम में जागरूकता रखते हुए उत्कृष्ट आराधक बन सकता है।
गुणस्थानों पर आरोहण मोह घटने से होता है। जितना-जितना मोह (कषाय-भाव) घटता है उतनी ही परिणामों में विशुद्धि आती है, आसक्ति घटती है, निस्पृहता एवं समत्व भाव में वृद्धि होती है, तभी सम्यक्त्व, श्रावकपना, संयतपना प्राप्त होता है। आराधकता श्रेणिकरण, वीतरागता, सर्वज्ञता एवं मोक्ष-प्राप्ति ये सभी श्रमण जीवन की निर्मल-निरतिचार साधना-आराधना से ही संभव है। -रजिस्ट्रार, अखिल भारतीय श्री जैन रत्न आध्यात्मिक शिक्षण बोर्ड, जोधपुर (राज.)
(ई-45, प्रतापनगर, जोधपुर)
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