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10 जनवरी 2011
जिनवाणी
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उन्हीं अविच्छिन्न परिणामों से जीवन पर्यन्त भी इस चारित्र का पालन किया जा सकता है, इसी अपेक्षा से उत्कृष्ट काल बतलाया गया है।
4. सूक्ष्म सम्पराय चारित्र - जब मोहनीय कर्म की 28 प्रकृतियों में से मात्र संज्वलन लोभ-कषाय का ही उदय रहे, अन्य प्रकृतियों का क्षय अथवा उपशम हो जाये, ऐसी अवस्था को सूक्ष्म सम्पराय चारित्र कहते हैं। यह चारित्र उपशम श्रेणि व क्षपक श्रेणि दोनों ही प्रकार के साधकों को प्राप्त होता है।
इस चारित्र में मात्र दसवाँ गुणस्थान ही होता है। इसकी स्थिति जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की होती है। यह चारित्र एक भव में चार बार तथा अनेक भवों में 9 बार प्राप्त हो सकता है। कुल मिलाकर 3 भवों में ही प्राप्त होता है। इस चारित्र में यह विशेषता है कि संयत में ज्ञानोपयोग ही रहता है। अर्थात् साधक की प्रवृत्ति चार ज्ञानों में ही होती है, दर्शनोपयोग में प्रवृत्ति नहीं रह पाती ।
यह चारित्र संक्लेश और विशुद्धि की अपेक्षा भी दो प्रकार का है। उपशम श्रेणी में जब साधक ग्यारहवें गुणस्थान से गिरकर दसवें गुणस्थान को प्राप्त करता है तो उसे संक्लिश्यमान सूक्ष्मसम्पराय चारित्र कहते हैं। जब उपशम अथवा क्षपक श्रेणि करते समय साधक उत्तरोत्तर विशुद्ध परिणामों से आठवें, नवें गुणस्थान से दसवें गुणस्थान को प्राप्त करते हैं तब उसे विशुद्धयमान सूक्ष्मसम्पराय चारित्र कहते हैं।
5. यथाख्यात चारित्र - कषाय रहित साधु का चारित्र, जो किसी भी प्रकार के किंचित् भी दोष से रहित, निर्मल और पूर्ण विशुद्ध होता है, उस सर्वोच्च चारित्र को यथाख्यात चारित्र कहते हैं । अर्थात् वोतरागियों का चारित्र यथाख्यात चारित्र है। इस चारित्र में मोहनीय कर्म का, राग-द्वेषादि का लेश मात्र भी उदय नहीं रहता है। इसके निम्नलिखित भेद हैं
(अ) उपशान्त मोह छद्मस्थ चारित्र- यह ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती साधकों में होता है । (ब) क्षीणमोह छद्मस्थ चारित्र - यह बारहवें गुणस्थान वर्ती साधकों में होता है ।
(स) सयोगी केवली चारित्र - यह तेरहवें गुणस्थानवर्ती में होता है ।
(द) अयोगी केवली चारित्र - यह चौदहवें गुणस्थानवर्ती में होता है ।
उपशम श्रेणि करने वाले साधु-साध्वियों को ग्यारहवाँ गुणस्थान प्राप्त होता है। इस गुणस्थान वालों को अन्तर्मुहूर्त में नीचे गिरना ही पड़ता है। यदि आयु पूर्ण हो जाये तो काल भी कर सकते हैं। काल करने पर ये पाँच अनुत्तर विमान में ही जाते हैं। वहाँ 33 सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति पाते हैं तथा अगले मनुष्य भव में मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं ।
उपशान्त कषाय वीतराग गुणस्थान एक भव में उत्कृष्ट दो बार तथा अनेक भवों में उत्कृष्ट चार बार प्राप्त हो सकता है। यह गुणस्थान दो भवों से अधिक में प्राप्त नहीं होता है। इस गुणस्थान की यह भी विशेषता है कि इसमें रहते साधक के परिणाम न तो वर्धमान होते हैं, न हीयमान । एकान्त अवस्थित परिणाम मात्र इसी ग्यारहवें गुणस्थान में पाये जाते हैं। इस गुणस्थान की स्थिति पूर्ण हो जाने पर साधक को नीचे गिरना पड़ता है।
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