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________________ श्रमणों एवं श्रावकों का पारस्परिक सम्बन्ध न्यायाधिपति श्री जसराज चौपड़ा गुरु एवं श्रमण के स्वरूप पर विशद प्रकाश डालने के साथ चौपड़ा सा. ने श्रमणों एवं श्रावकों के पारस्परिक कर्त्तव्यों का चिन्तनपूर्ण विश्लेषण किया है। आलेख में उनका व्यापक अध्ययन, मनन और संप्रेषण प्रतिबिम्बित हुआ है। यदि कोई मात्र इस एक आलेख को पढ़ ले गुरु, श्रमण एवं श्रावक के सम्बन्ध में उसकी समझ विकसित हो सकती है - सम्पादक 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 237 श्रमण एवं श्रावक का सम्बन्ध गुरु एवं शिष्य का सम्बन्ध है। परमेष्ठी एवं पुरुष का सम्बन्ध है। इनके सम्बन्धों की बात करने से पूर्व यह समझ लेना जरूरी है कि श्रमण किसे कहते हैं एवं श्रावक कौन होता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने श्रमण को परिभाषित करते हुए फरमाया है- “ श्राम्यन्तीति श्रमणा तपस्यन्तीत्यर्थः” अर्थात् जो श्रम व तप करे वह श्रमण है। आचार्य रविषेण ने तप को ही श्रम कहा है। वे कहते “परित्यज्य नृपो राज्यम्, श्रमणो जायते महान् । तपसा प्राप्यसम्बन्धस्तपो हि श्रम उच्यते । " (पद्मचरित 6.2) अर्थात् राजा-महाराजा राज्य - त्याग कर तप से जुड़कर श्रमण बनने में गौरव की अनुभूति करते हैं, क्योंकि तप ही श्रम है। उत्तराध्ययन सूत्र 2.3 में कहा गया है- “समयाए समणो होइ” अर्थात् जो समता में रहे वही श्रमण है । स्थानांग सूत्र में कहा गया है- “ णत्थि य से कोई वेसो, पिओय सव्वे जीवेसु, एएण होइ समणो, एसो अन्नो वि पज्जाओ ।" अर्थात् जो किसी से द्वेष न करता हो, जिसको सभी जीव समान भाव से प्रिय हैं वह श्रमण है। आचार्य हेमचन्द्र ने 'समण' शब्द का निर्वचन "सम + मन" से है, जिसका अर्थ है सभी जीवों के प्रति समान मन यानी समभावी होना श्रमणता है। सम-मन से एक मकार का लोप करने से 'समन' हो जाता है। इसी बात को दो तरह से इस प्रकार कहा गया है- “सर्वेष्वपि जीवेषु सममनस्त्वात्” जो प्राणिमात्र के प्रति मन में समत्व का भाव रखता हो एवं “सम्यक्मणे समणे" अर्थात् जिसका मन सम्यक्त्व से ओतप्रोत हो वह श्रमण है । स्थानांग सूत्र में कहा गया है सो समणो जइ सुमणो, भावेण जइ ण होइ पावमणो । सयणे अजणे य समो, समोअ माणावमाणेसु ॥ - स्थानांग सूत्र 3 Jain Educationa International अर्थात् समण सुमना (सुमन वाला) होता है। वह कभी पापमना नहीं होता अर्थात् उसका मन निर्मल एवं स्वच्छ होता है, कलुषित नहीं। जो स्वजन - परजन मान-अपमान में सर्वत्र सम रहता है, For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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