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________________ 238 जिनवाणी 10 जनवरी 2011 संतुलित रहता है वही समण (श्रमण) है। प्रभु महावीर ने फरमाया है- “समयाधम्ममुदाहरे मुणी।"-सूत्रकृतांग 2.2.6 अर्थात् प्रभु के अनुसार समता में ही धर्म का निवास है तथा जो समता में रमण करे वही श्रमण है। सूत्रकृतांग सूत्र में श्रमण की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि जो आसक्ति रहित हो, किसी प्रकार का परिग्रह नहीं रखे, किसी प्राणी की हिंसा न करे, झूठ नहीं बोले, काम-क्रोध-मोह-लोभ-मद-राग-द्वेष-प्राणातिपात आदि पापों एवं आत्मा को पतन मार्ग पर अग्रेसित करने वाले साधनों से निवृत्त रहे, जितेन्द्रिय, शुद्ध संयमी एवं ममत्व रहित हो वह समण है। बुद्ध ने धम्मपद में कहा है- “न मुण्डकेन समणो, अव्वत्तो अलिकं भणो। इच्छालोभ-समापन्नो समणो किं भविस्सति॥" -धम्मट्ठवग्ग, 9 अर्थात् मात्र सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता। जो इच्छाओं एवं लोभ को जीते, व्रती एवं सत्यवादी हो वह श्रमण है। वस्तुतः श्रमण को ही प्राकृत भाषा में ‘समण' कहा जाता है, जिसका अर्थ है श्रम करने वाला। यह श्रम सामान्य श्रमिक का श्रम नहीं है, वरन् आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में कृत श्रम है। इसका अर्थ है कि जो स्वयं के . श्रम से कर्म बंधन की बेड़ियों को तोड़ता है यानी जो स्वयं को कर्ममुक्त बनाने हेतु श्रम करता है वह श्रमण है। जो त्रस या स्थावर किसी भी जीव को परिताप, संक्लेश या पीड़ा नहीं पहुंचाता है एवं पृथ्वी की भांति सब प्रकार के परीषहों को समभावपूर्वक सहता है वह महामुनि श्रमण या श्रमणश्रेष्ठ कहलाता है।. "उवेहमाणो कुसलेहिं संवसे अकंतदुक्खा तसथावरादुही अलूसए सव्वसहे महामुणी, तहादिसे झुस्समणे समाहिए॥" -आचारांग सूत्र 2.16। इसका तात्पर्य यह है कि श्रमण तप, त्याग, संयम, परीषह आदि की अग्नि में तपकर अर्थात् स्वयं के कठोर परिश्रम से आत्मा को मुक्तकर ‘श्रमण' नाम को सार्थक करता है। संक्षेप में कहें तो श्रमण-श्रमणी का कठोरतम तपोमयी जीवन स्व-कल्याण के साथ समाज में आध्यात्मिकता के उत्थान, नैतिकता के निखार एवं सर्वांगीण समत्व-साधना के संचार एवं प्रसार हेतु समर्पित होता है। शब्द-विभक्ति के आधार पर कहें तो 'श्र' (स) श्रमशीलता, समत्व व तपाराधना का द्योतक है तो 'म' मनोनिग्रह, ममत्व रहितता व मनन शीलता का स्वरूप है एवं 'ण' णमोकार मंत्र की पंच परमेष्ठी पद की अर्हता एवं वीतरागता की साधना का द्योतक है। वस्तुतः कोई समता से श्रमण एवं ज्ञान से मुनि होता है। समयाट समणो होई, तवेण होई तावसो। णाणेण य मुणी होई, बंभचेरेण बंभणो।। - उत्तराध्ययन सूत्र ऐसे ही महान् श्रमणों (साधुओं) को लक्ष्य कर नीतिकार चाणक्य कहता है- “साधूनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थभूता हि साधवः। कालेन फलते तीर्थः सद्यः साधुसमागमः॥" अर्थात् साधु दर्शन स्वयं में पुण्य उपार्जन का स्रोत है, क्योंकि साधु (श्रमण) स्वयं ही तीर्थ है। तीर्थ दर्शन तो पता नहीं किस घड़ी एवं किस काल में फल प्रदान करेगा, परन्तु संत-श्रमण-दर्शन तो शीघ्र या तत्काल फलदाता होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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