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________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 235 प्ररूपित मर्यादा नहीं तोड़नी चाहिये। क्षमा आदि दस धर्मों द्वारा जीवन को गंभीर व मर्यादित बनाये रखना चाहिये । 5. जिस प्रकार आकाश निराधार स्थित है, इसी प्रकार श्रमण को भी किसी गृहस्थ, संघ आदि पर आधारित नहीं रहकर जीवन यापन करना चाहिये । 6. जैसे वृक्ष गर्मी, ठंड, हवा आदि को सहन करता है, अपनी छाया से दूसरों को सुख पहुँचाता है, ऐसे ही श्रमण को अनुकूल प्रतिकूल परीषहों को सहन करना चाहिये और धर्मोपदेश द्वारा दूसरों को शांति पहुँचाना चाहिये। 7. जैसे भ्रमर फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस लेता है, लेकिन फूल को मुरझाने नहीं देता। ठीक इसी प्रकार श्रमण भी गृहस्थ के घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार लेता है, लेकिन किसी गृहस्थ को किलामणा नहीं उपजाता है, न दूसरी बार गृहस्थ को भोजन बनाना पड़े, ऐसी परिस्थिति पैदा होने देता है। 8. जैसे सिंह को देखकर हरिण तुरन्त भाग जाता है, ठीक इसी प्रकार श्रमण को पाप स्थानों से सदा डरते एवं बचते रहना चाहिये । 9. जिस प्रकार पृथ्वी ठंड, गर्मी, छेदन, भेदन आदि सभी कष्टों को समभाव से सहन कर अपने अपकारी, उपकारी, भले-बुरे आदि सभी को समान रूप से आश्रय देती है। ठीक इसी प्रकार श्रमण अपने अपकारी, उपकारी, अपने निन्दक या प्रशंसक आदि सबका आधारभूत बन कर सबको समान रूप से शांति, क्षमा, राग-द्वेष रहित होने आदि का निःस्वार्थ भाव से उपदेश देता है। 10. जिस प्रकार कमल कीचड़ में उत्पन्न होता है एवं जल से विकसित होता है लेकिन फिर भी जल से निर्लिप्त रहता है। ठीक इसी प्रकार श्रमण को भी कामभोगों से पूर्ण निर्लिप्त रहना चाहिये। श्रमण की भी उत्पत्ति काम-भोगों से ही होती है, लेकिन दीक्षा के बाद अपना नया जन्म समझ कर काम-‍ -भोगों, पाप प्रवृत्तियों से पूर्णतः बचना चाहिये । 11. जैसे सूर्य अंधकार का नाशकर संसार के पदार्थों को प्रकाशित करता है । ठीक इसी प्रकार श्रमण को गमिक ज्ञान रूपी प्रकाश से सम्पन्न होकर सूर्य की भाँति सांसारिक प्राणियों के अज्ञान रूपी अंधकार का नाशकर उनको वीतराग मार्ग पर बढ़ने के लिये प्रेरित करना चाहिये । 12. जैसे वायु चारों दिशाओं में अप्रतिबद्ध रूप से बहती है। ठीक इसी प्रकार श्रमण को भी किसी गृहस्थ आदि प्रतिबन्ध में न रहकर अप्रतिबद्ध विहारी होकर धर्मोपदेश द्वारा प्राणियों का कल्याण करना चाहिये । जैसे पवन स्थिर नहीं रहता, ऐसे ही श्रमण को भी अकारण मर्यादा से अधिक एक स्थान पर नहीं ठहरना चाहिये । विषयान्तर होकर मेरा श्रमणोपासकों एवं श्रमणोपासिकाओं से सानुरोध, सविनय निवेदन है कि हमको भी अपनी पूर्ण शक्ति द्वारा आदर्श, परोपकारी, ज्ञान आचरण आदि से सम्पन्न होकर आगमकालीन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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