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________________ 234 जिनवाणी || 10 जनवरी 2011 2. प्रत्येक अनुकूल प्रतिकूल प्रसंग में समभाव, आत्मशांति, समाधि आदि बढ़ रही है या नहीं? 3. किसी भी प्रसंग में तनाव तो नहीं हो रहा है? हो रहा हो तो स्वाध्याय, ध्यान, अनुप्रेक्षा द्वारा तनाव रहित होने का प्रयास करना चाहिये। 4. दिन प्रतिदिन आत्मीय सुख बढ़ता जा रहा है या नहीं? क्योंकि भगवती सूत्र में तो बारह मास की दीक्षा वाले के सुख को सर्वार्थसिद्ध के देवों के सुख से भी बढ़कर बताया है। 5. पर के दोषों को देखकर उनसे घृणा, बुराई आदि प्रवृत्ति तो नहीं हो रही है? अगर हो रही हो तो उसके दोषों से भी शिक्षा लेना चाहिये कि यह मेरा शिक्षक है, उसको उपकारी मानें और अपने में वे दोष नहीं प्रवेश करें, इसका ध्यान रखें। उसके दोषों को माफ कर दें। 6. अपना छोटा सा दोष पर्वत जैसा लग रहा है या नहीं, उसकी पुनरावृत्ति से बच रहा हूँ या नहीं ? 7. अपनी बड़ी से बड़ी विशेषता सामान्य तिनके जैसी लग रही है या नहीं? दूसरे की छोटी सी विशेषता भी बड़ी लग रही है या नहीं, तथा उस गुण को अपने जीवन में उतारना चाहिये। 8. प्रातः व सायंकालीन प्रतिक्रमण खाली शब्दों से न करके उसमें एकमेक हो रहा हूँ या नहीं? उपर्युक्त ऐसे अनेक मापदण्डों द्वारा अपना निरीक्षण कर अपना आध्यात्मिक विकास किया जा सकता है। यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि दूसरों की दृष्टि में अच्छा साधक दिखाई देना आसान है, लेकिन अपनी एवं वीतराग भगवान् की दृष्टि में निर्दोष नहीं बन पावे तो एक भव में ही नहीं, अनेक भवों में भी अपना कल्याण संभव नहीं है। हाँ, दूसरों का अपने द्वारा कल्याण हो सकता है। समता रूप सामायिक को धारण करने वाले श्रमण को अनुयोगद्वार सूत्र में बारह पदार्थों से उपमित किया है।ये बारह उपमाएँ बहुत संक्षेप में नीचे दी जा रही हैं। ये उपमाएँ वास्तव में श्रमण के जीवन का दर्पण हैं: उरग गिरि जलण सागर, णहतल तरुगण समो य जो होई। भमर मिय धरणि जलरूह, रवि पवण समो य सो समणो।। अर्थात्- सर्प, पहाड़, अग्नि, सागर, आकाश, वृक्ष, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य और पवन के समान जो होता है, वही श्रमण है। 1. जैसे सर्प अपने लिये बिल नहीं बनाता, चूहों आदि के द्वारा बनाये हुये बिल में रहता है। ऐसे ही श्रमण को अपने निवास आदि नहीं बनाना चाहिये। न प्रेरणा करनी चाहिये, अनुमोदन भी नहीं करना चाहिये। 2. जैसे पर्वत हवा आदि से कंपित नहीं होता, ऐसे ही श्रमण को भी सभी प्रकार के प्राप्त परीषहों में समभाव रखना चाहिये। 3. जैसे अग्नि में कितना भी ईंधन डाला जावे, वह तृप्त नहीं होती, इसी तरह श्रमण को ज्ञानार्जन में, तप करने में तृप्त नहीं होकर ज्ञानार्जन करना चाहिये एवं तपाराधना करनी चाहिये। 4. जैसे समुद्र अगाध जल से भरा रहता है, अपनी मर्यादा नहीं तोड़ता। इसी प्रकार श्रमण को भी भगवान् द्वारा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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