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10 जनवरी 2011 जिनवाणी 231
श्रमण-जीवन में अप्रमत्तता
श्री प्रेमचन्द कोठारी
साधक श्रमण अथवा श्रमणी अपने साधनाशील जीवन को किस प्रकार अग्रेसर कर सकते हैं, इसके सम्बन्ध में प्रेरक विचारों से ओतप्रोत है यह आलेख। -सम्पादक
जैन दर्शन में महाव्रतधारी साधक को साधु, भिक्षु, संयमी, श्रमण आदि अनेक नामों से संबोधित किया गया है। ऐसे तो व्यवहार नय की अपेक्षा से द्रव्य दीक्षा लेने पर भी उन्हें श्रमण आदि नामों से संबोधित किया जाता है, लेकिन ज्ञानीजन फरमाते हैं कि मात्र द्रव्य दीक्षा अनंत बार लेने पर भी लक्ष्य की उपलब्धि नहीं हो सकती। वास्तव में दीक्षा का, संयमी होने का लक्ष्य वीतराग अवस्था की प्राप्ति, कर्म-रहित होना तथा मोक्षप्राप्ति है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये श्रमण को सदा सजग एवं अप्रमत्त (भारण्ड पक्षी की भाँति) रहने की आवश्यकता है। इसी आशय को समझाते हुए निशीथभाष्य 264 में बताया है:-'जा चिट्ठा सा सव्वा-संजम हेउंति होति समणाणं, अर्थात् श्रमणों की सभी क्रियाएँ संयम के हेतु ही होती हैं।
श्रमण की निशदिन होने वाली क्रियाएँ अर्थात् उठना, बैठना, खाना-पीना, देखना, बोलना, विहार, निहार, सोना, जागना आदि सभी में वीतराग वाणी की, वीतरागता की सुगन्ध महकनी चाहिये। यह सुगन्ध तब ही महक सकती है जबकि वह साधक निश-दिन अप्रमत्त रह कर सावधानीपूर्वक साधना करता रहे। आचारांग चूर्णि 1/3/4 में कहा गया है-'अप्पमत्तस्स नत्थि भयं, गच्छतो चिट्ठतो भुञ्जमाणस्स वा।" अर्थात् अप्रमत्त को चलने, खड़ा होने, खाने में कहीं भी भय नहीं है। वास्तव में प्रमादी को सब ओर से सदा भय ही रहता है जबकि अप्रमादी को कभी किसी तरह का भय नहीं रहता है। भगवान् ने आचारांग सूत्र में फरमाया है- “सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अपमत्तस्स नत्थि भयं।" ।
जिस साधक को साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ना है, अपना आध्यात्मिक विकास करना है, उसको प्रत्येक प्रसंग, अवस्था, घटना आदि उपस्थित होने पर पूर्ण सावधानी पूर्वक अपनी मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्ति में कर्मबन्धन से पूर्ण प्रकार से बचते हुए प्रवृत्ति करनी चाहिये। यह भूलकर भी नहीं समझना चाहिये कि मेरी इच्छा अनुसार साथी, शिष्य, गुरु, शरीर परिस्थिति मिल जाए तो मैं साधना अच्छी कर सकता हूँ। उसको तो यह समझना चाहिये कि मुझे जिस तरह का साथी, शिष्य, गुरु शरीर परिस्थिति आदि मिली है, इन सबका निर्माता भूतकाल में मैं ही था, ये सब अवस्थाएँ मेरी साधना के लिये ही उपस्थित हुई हैं, इनमें ही मुझे साधना करनी है। वास्तव में कुशल साधक प्राप्त प्रत्येक व्यक्ति, परिस्थिति, अवस्था आदि को अपनी साधना
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