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जिनवाणी
|| 10 जनवरी 2011 || रास्ता क्यों चुना? 'समिच्च लोए खेयन्ने पवेइए' - समस्त लोक की पीड़ा को जानकर और जगत् को दुःख एवं पीड़ा से मुक्त करने के लिये महावीर ने संन्यास धारण किया। वे आत्म-कल्याण के साथ-साथ अपने वैयक्तिक जीवन से ऐसा आदर्श प्रतिष्ठित करना चाहते थे जिसे सम्मुख रखकर व्यक्ति अपने कल्याण और मानवता के कल्याण की दिशा में अग्रसर हो सके। प्रश्न उठता है कि लोक कल्याण के लिये श्रमणत्व की आवश्यकता क्यों है? सामान्यतया जब तक व्यक्ति अपने वैयक्तिक स्वार्थों से परिवार के साथ जुड़ा रहता है तब तक वह सम्यक् रूप से लोक कल्याण का सम्पादन नहीं कर सकता है। लोक-मंगल के लिये निजी सुखाकांक्षाओं से, स्वार्थों से, मैं और मेरेपन के भावों से ऊपर उठना आवश्यक है। ममत्व और मेरे मन के घेरे को समाप्त करना अपेक्षित है। परिग्रह में भोगों की ओर आकर्षित होकर उसके प्रवाह में बहने की सम्भावना रहती है। जितना परिग्रह उतना ही अधिक दुःख, यह नियम है। जब पदार्थों में आसक्ति रहती है तो आत्मत्तत्व से व्यक्ति दूर ही रहता है। श्रमणजीवन में आत्म-कल्याण तो होता ही है, साथ-साथ में लोक कल्याण भी हो जाता है। ऐसे व्यक्ति विरले होते हैं जो ममत्व और भोग-लिप्सा पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। उनके लिये भोग रोग होता है। दुनियाँ के सुख उनके लिये भय है, क्योंकि वे अवनति के गर्त में धकेलते हैं। इसीलिये ऐसे व्यक्ति अणगार बन जाते हैं, उनकी अन्तर्दृष्टि जागृत हो जाती है और वे त्यागवृत्ति अपनाकर स्व-पर कल्याण के उस मार्ग पर निकल पड़ते हैं जिस पर दृढ़ आत्मशक्ति सम्पन्न पुरुष ही चल सकता है। ___ संतों की एक विशेषता है- निर्भयता। भय हमेशा पाप और पतन का कारण होता है। भर्तृहरि ने कहा हैभोगों में रोग का भय है, ऊँचे कुल में पतन का भय है, धन में छीने जाने का भय है, मान में दीनता का भय है, बल में शत्रु का भय है, रूप में बुढ़ापे का भय है, शास्त्र में शुष्कवाद का भय है, गुण में निन्दा का भय है एवं शरीर में काल का भय है। संसार के सभी व्यवहार और गुण किसी न किसी भय से पीड़ित हैं। केवल एक वैराग्य ही है जिसमें किसी प्रकार का भय नहीं है। साधु बाह्य और अन्तरंग परिग्रह से निवृत्त होता है, अतः उसे न संसार से भय है और न ही मृत्यु से। इसीलिये वह निर्भय होकर आत्म एवं परकल्याण में बिना भय के लगा रहता है।
श्रमण अपनी इन्हीं विशिष्टताओं के कारण मानव एवं समस्त प्राणिजगत् के दुःख निवारण में संलग्न होता है। वह आत्म-गुणों की उच्च अवस्था को प्राप्त हुई एक आदर्श मूर्ति है एवं दूसरों के लिये प्रेरणास्रोत है। वह अज्ञान में जीने वालों के लिये ज्ञान का प्रकाश स्तम्भ है। उसकी साधना आत्मा से परमात्मा बनने की साधना है। दुःखी मानव के लिये शाश्वत सुख-प्राप्ति का रास्ता एक निःस्वार्थ, निर्लोभी, निर्मोही, परोपकारी संत ही बता सकता है। संतों का समागम न केवल ज्ञान-प्राप्ति में सहायक होता है, बल्कि मन की मलिनता को भी दूर करता है। तीर्थों का फल तो समय आने पर मिल भी सकता है, परन्तु संतसमागम का फल तो तत्काल मिलता है। जैसे वृक्ष प्रचंड धूप सहन करके भी दूसरों को छाया देते हैं वैसे ही साधु दुःख सहन करके भी शरण में आये लोगों को शांति प्रदान करते हैं। संतों की जीवन-गाथा भी इसीलिये पढ़ी जाती है कि इससे मन की सोई हुई शक्ति जागृत हो जाए। “सत्संगति जड़ता नष्ट करती है, वाणी को सत्य से सींचती है, चित्त को प्रसन्नता देती है और संसार में यश फैलाती है। सत्संगति मनुष्य के लिये क्या नहीं करती?" (भृर्तृहरि-नीतिशतक)
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