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जिनवाणी
| 10 जनवरी 2011 का अंग ही मानता है और उसे अपनी साधना के लिये उपयोगी ही समझता है। वह किसी भी घटना को अकारण एवं अनुपयोगी न समझकर उसी से साधना कर आगे बढ़ जाता है, जैसे भगवान् महावीर-चण्डकौशिक भगवान् महावीर- गौशालक, मैतार्य अणगार-स्वर्णकार, श्रमणोपासक महाशतक-रेवती, राजा परदेशी-सूरिकता आदि। उक्त उदाहरणों में स्पष्ट होता है कि इन महापुरुषों को परिस्थितियाँ भले ही भिन्न-भिन्न प्राप्त हुई हों, लेकिन इनसे ही ये अपने लक्ष्य प्राप्ति में आगे बढ़ गए।
श्रमण की परिभाषाएँ आगमों, भाष्य, चूर्णि आदि अनेक स्थानों पर प्रेरक रूप में मिलती हैं, उनमें से कुछ निम्नांकित हैं:(1) समे य जे सव्वपाणभूतेसु से हुसमणो। -प्रश्नव्याकरण 2.5
अर्थात्-जो समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखता है, वस्तुतः वही श्रमण है। (2) नाणी संजमसहिओ नायव्वोभावओ समणो। -उत्तराध्ययन, नियुक्ति 389
अर्थात्- जो ज्ञानपूर्वक संयम की साधना में रत (लीन) है, वही सच्चा श्रमण है। (3) इह लोगणिरविक्खो, अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि।
जुत्ताहारविहारो, रहिदकसाओ हवे समणो॥- प्रवचनसार 3.26 अर्थात्- जो कषायरहित है, इस लोक में निरपेक्ष (किसी तरह की अपेक्षा रहित) है, परलोक में भी
अप्रतिबद्ध (अनासक्त) है और विवेकपूर्वक आहार-विहार की चर्या रखता है, वही सच्चा श्रमण है। (4) समो सव्वत्थ मणो जस्स भवति स समणो। - उत्तराध्ययन चूर्णि 2
अर्थात्- जिसका मन सर्वत्र (अनुकूल, प्रतिकूल, उतार-चढ़ाव आदि सभी प्रसंगों में) सम रहता है, वही श्रमण है। उवसमसारंखुसामण्णं - बृहत्कल्पभाष्य, 1.35 अर्थात्- श्रमणत्व (साधु जीवन) का सार उपशम है अर्थात् श्रमण में सदा समाधि, शांति, निर्लेपता, निर्विकारता बनी रहे। इसी तरह के आशयों से युक्त अनेक प्रेरणास्पद सूत्र आगम साहित्य में उपलब्ध हैं।
जिसने एक भव में द्रव्य के साथ ही भाव श्रमण की भी आराधना कर ली एवं पूर्ण अप्रमत्तता, सजगता बनाये रखी,यद्यपि अप्रमत्त अवस्था सकषायी साधकों की अंतर्मुहुर्त से अधिक नहीं रह सकती, लेकिन स्थिति पूरी होने के बाद प्रमत्तता आने पर पुनः सावधान होकर शीघ्र ही वह अप्रमत्त होता रहे, और यदि पहले आयु नहीं बंधा हो तो प्रमत्त संयत गुणस्थान में आयु बांधने वाला अधिक से अधिक 15 भव में अवश्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है। वह साधना काल में भले ही वीतरागी नहीं भी बने तो भी वीतरागता की अनुभूति अवश्य कर सकता है। जो संत बन भी गये, लेकिन भौतिक आकर्षणों में, तेरे मेरे में, सामाजिक गतिविधियों में, सांप्रदायिक उलझनों आदि में फंसे रहे तो उनकी स्थिति धोबी के श्वान की भाँति समझनी चाहिये। घर वाले तो समझे कि
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