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________________ 228 जिनवाणी || 10 जनवरी 2011 पान का परित्याग कर पादपोपगमन संथारा स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ विचरूँगा। आगम शास्त्रों में जो-जो विशिष्ट गुण अलग से माहन, श्रमण, भिक्षु और निर्गन्थ के बताये हुए हैं, वे कथंचित् एकार्थक हैं, परस्पर अविनाभावी हैं। इस तरह श्रमण जीवन की महत्ता इसके अर्थ में ही निहित है। तप में सम्पूर्ण मोक्षमार्ग समाहित स्थानांग सूत्र (10/16) में श्रमण धर्म इस प्रकार का कहा गया है- क्षमा, अलोभ, सरलता, मृदुता, लघुता, सत्य, संयम, तप, त्याग एवं ब्रह्मचर्यवास। इसी आगमशास्त्र (2/1/सूत्रांक 40) में कहा है- दो कारणों से संसार अटवी को पार पाया जा सकता है और वेदो मार्ग हैं-'विज्जाए चेव, चरणेण चेव' अर्थात् विद्या और चारित्र। विद्या का अर्थ ज्ञान और चारित्र का अर्थ क्रिया से है। कहने का तात्पर्य है कि ज्ञान और क्रिया दो मोक्ष के मार्ग हैं। शास्त्रकार आगे कहते हैं- “आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं' (सूत्रकृतांग 12/11) अर्थात् विद्या और चरण अर्थात् ज्ञान-क्रिया के समन्वय से ही मुक्ति हो सकती है। उपाध्याय यशोविजय जी ने ज्ञानसार (10/73) में कहा है कि साधु ज्ञान रूपी अमृत का पानकर और क्रिया रूपी कल्पवृक्ष के फल खाकर, समता रूपी तांबुल चखकर परम तृप्ति का अनुभव करता है। ज्ञान और क्रिया सम्यक् होनी चाहिए इसीलिये आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र के प्रारम्भ में कहा है- 'सम्यक्-दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्ष-मार्गः' सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही मोक्ष मार्ग हैं, ये सब अलग-अलग नहीं वरन् मिलकर ही मार्ग है। आचार्य के अनुसार जब तक सम्यक् दर्शन नहीं होता है, तब तक सम्यक् ज्ञान नहीं हो सकता और जब तक सम्यक् ज्ञान नहीं होता है, तब तक सम्यक् चारित्र नहीं हो सकता। मोक्ष-साधना के मार्ग में ये तीनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के मोक्ष मार्ग अध्ययन में मोक्ष के चार मार्ग बताये हैं __ नाणं च दंसणंचेव, चरित्तंचतवोतहा। ___एस मग्गो तिपन्नतो, जिणेहिं वरदंसिहि।।-उत्तराध्ययन सूत्र 28.2 अर्थात् सत्य के सम्यक्द्रष्टा जिनवरों ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप- ये चार मोक्ष के मार्ग बताये हैं। यहाँ प्रभु ने चौथे मार्ग के रूप में तप को बताया है। वस्तुतः ये चारों ही एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, परन्तु प्रभु ने जो तप का मार्ग बताया है उसमें सभी का समन्वय हो जाता है। यही कारण है कि श्रम की परिभाषा में इसका अर्थ तप बताया गया है। सर्वेपदा हस्तिपदे निमग्नाः'-हाथी के पैर में सब के पैर समा जाते हैं। सागर के गर्भ में सभी नदियां समा जाती हैं, उसी तरह तप के आचरण में मोक्ष के सभी मार्ग समाहित हो जाते हैं। तप का जैसा व्यापक वर्णन जैन आगमों में मिलता है वैसा अन्यत्र किसी भी दर्शन में नहीं देखा गया। तप का क्षेत्र इतना व्यापक है कि इसमें अनशन, स्वाध्याय, सेवा, भक्ति, प्रायश्चित्त, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि जीवन की सभी क्रियाएँ आ गई हैं। इसीलिये जैन दर्शन में श्रमण शब्द तपस्वी का ही वाचक बन गया है-'श्राम्यतीति श्रमणा तपस्यन्तीत्यर्थः (दशवैकालिक वृत्ति 1/13 आचार्य हरिभद्र)। जैन धर्म का इतिहास पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि जितने भी महापुरुष हुए हैं वे तपस्या के परिणाम से हुए हैं। आदिपुरुष भगवान् ऋषभदेव ने एक हजार वर्ष तक कठोर तपस्या की एवं केवलज्ञान प्राप्त किया। अन्तिम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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