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10 जनवरी 2011
जिनवाणी
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पर-जन में, मान एवं अपमान में सदा सम रहता है, वह श्रमण है। श्रमणत्व का सार है- उपशम (उवसम सारं खु सामण्णे - वृहत्कल्प भाष्य 1.135) तप से उपशम भाव की प्राप्ति होती है और विकारों के उपशम से समत्व की प्राप्ति होती है। इसीलिये भगवान् ने कहा है- 'समयाए समणो होइ' (उत्तराध्ययन सूत्र 25.32) अर्थात् समता से श्रमण होता है। प्रश्नव्याकरण सूत्र (2.5.162) में भी कहा है- 'समे य जे सव्वपाणभूएसु से हु समणो' अर्थात् जो समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखता है, वस्तुतः वही श्रमण है ।
सूत्रकृतांग में श्रमण का स्वरूप बताते हुए कहा है
" एत्थ विसमणे अणिस्सिते अणिदाणे आदाणं च अतिवायं च मुसावायं च बहिद्धं च कोहं च माणं च मायं च लोभं च पेज्जं च दोसं च इच्चेवं जतो आदाणातो अप्पणो पदोसहेतुं ततो तओ आदाणातो पुव्वं पडिविरते विरते पाणाइवायाओ दंते दविए वोसट्ठकार समणे ति वच्चे।" - सूत्रकृतांग 1.16.635
अर्थात् जो साधक अनिश्रित ( शरीर आदि किसी भी पदार्थ में आसक्त या उस पर आश्रित नहीं है), अनिदान (अपने तप-संयम के फल के रूप में किसी भी प्रकार के इह - लौकिक सुख भोगाकांक्षा से रहित) है, तथा कर्मबन्ध के कारणभूत प्राणातिपात, मृषावाद, मैथुन और परिग्रह (उपलक्षण से अदत्तादान भी) से रहित है तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष नहीं करता; इस प्रकार जिन-जिन कर्मबन्ध के आदानों-कारणों से इहलोक - परलोक में आत्मा की हानि होती है तथा जो-जो आत्मा के लिये द्वेष के कारण हों, उन-उन कर्मबन्ध के कारण से पहले से ही निवृत है एवं जो दान्त, भव्य (द्रव्य) तथा शरीर के प्रति ममत्व से रहित है, उसे श्रमण कहना चाहिए। इन अर्थों के प्रकाश में जब हम 'श्रमण' को कसते हैं तो श्रमण का पहला लक्षण अनिश्रित बताया है, क्योंकि वह सांसारिक पदार्थ या शरीर पर आश्रित नहीं है अथवा आसक्त नहीं है - वह पर पदार्थ पर आश्रित होकर नहीं रहता, बल्कि तप-संयम से स्वश्रम पर ही आगे बढ़ता है। श्रमण जो भी श्रम करता है, वह कर्म-क्षय के लिये ही करता है। निदान करने से कर्मक्षय नहीं होता है, इसीलिये उसे अनिदान कहा है। प्राणातिपात आदि जिन-जिन से कर्मबन्ध होता है, उनका वह शमन करता है, उनसे दूर रहता है। क्रोधादि कषायों एवं राग-द्वेष का शमन करता है। राग-द्वेष मोहादि कारणों से दूर रहकर समत्व में स्थिर रहता है ।
सूत्रकतांग में ही श्रमणों के बत्तीस योग-संग्रह अर्थात् पालन करने योग्य कृत्य बताये गये हैं, जिसमें दोषों की समर्थ आलोचना से लेकर मरण समय में संलेखना से आराधक बनने का निरूपण है। स्थानांग सूत्र (3/4/सूत्रांक 496) में कहा है- 'तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महपज्जवसाणे भवति' अर्थात् तीन कारणों से श्रमण की साधना का फल महानिर्जरा और उसके संसार का अंत बताया है। ये तीन कारण श्रमण के तीन मनोरथ या भावनाएँ होती हैं- 1. कब मैं अल्प या बहुश्रुत का अध्ययन करूँगा, 2. कब मैं एकल विहारी प्रतिमा को स्वीकार करूँगा एवं 3. कब मैं अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना से युक्त होकर भत्त
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