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जिनवाणी
10 जनवरी 2011
कहलाती है । कोई भी परम्परा निवृत्ति के महत्त्व को नकार नहीं सकती। आखिर परम्परा न केवल विधि से बनती है न केवल निषेध से। जीवन में दोनों का महत्त्व भी है। इनमें श्रमण परम्परा का वैशिष्ट्य मुख्य रूप से इस प्रकार है: -
1. प्रवृत्ति मनुष्य में सहज है, उसके सिखाने की आवश्यकता नहीं । आवश्यकता प्रवृत्ति पर अङ्कुश लगाने की है। श्रमण परम्परा यही कार्य करती है। निरङ्कुश प्रवृत्ति से तो सभ्य समाज बन ही नहीं सकता ।
2. हमारे जीवन का बाह्यपक्ष ही नहीं है, आन्तरिक पक्ष भी है। बाह्यपक्ष तो प्रवृत्ति का विषय है, किन्तु आन्तरिक पक्ष को निवृत्ति द्वारा ही जाना जा सकता है। अतः निवृत्ति के बिना हमारा ज्ञान अधूरा ही रह जाता है।
3. हमारी आवश्यकता केवल शारीरिक ही नहीं है। हमें दृढ़ इच्छा शक्ति तथा न्याय सङ्गत व्यवहार भी चाहिये। इसके लिये संयम चाहिये जो कि निवृत्ति का ही पर्यायवाची है। जैन परम्परा ने अहिंसा, संयम और तप के रूप में धर्म को परिभाषित किया। मूल रूप में धर्म हमें यही सिखाता है ।
4. निवृत्ति का अर्थ आन्तरिक जागरूकता है। इस प्रकार की आन्तरिक जागरूकता से मनुष्य पाता है कि उसमें अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान तथा अनन्त शक्ति है। यह जान लेना मनुष्य को सब बन्धनों से मुक्त कर देता है । यह अन्तरात्मा ही जान सकता है। अन्तरात्मा अन्त में परमात्मा हो जाता है ।
- 1 जे-7, जीवन सुरक्षा फ्लेट्स, सेक्टर 2, विद्याधरनगर, जयपुर (राज.)
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